Thursday 3 December 2020

अलविदा; मसालों के शहंशाह

 

मेरी पीढ़ी के लोग जब से पैदा हुए थे, महाशय धर्मपाल गुलाटी जी को MDH मसालों के विज्ञापन में देखते आ रहे थे। महाशय जी की खास बात यह थी कि मैंने बचपन से लेकर आज तक उनको वैसा का वैसा ही देखा है।

पिछले कई सालों से उनके देहांत की अफवाहें बीच-बीच में उड़ती रही हैं; लेकिन हर बार हर अफवाह को वे झूठा साबित कर देते थे; लेकिन इस बार ऐसा ही नहीं हुआ। कोरोना से तो वे जंग जीत गए; लेकिन उसके बाद दिल का दौरा पड़ने से आज सुबह उनका देहांत हो गया।

महाशय धर्मपाल का जीवन प्रेरणादायक रहा है। उनका जीवन वास्तव में शून्य से शिखर तक की यात्रा का एक बड़ा उदाहरण है। भारत विभाजन के बाद लुटे-पिटे लगभग खाली हाथ सीमा पार कर भारत पहुँचे लोगों में से वे भी एक थे। शुरूआती दिनों में तांगा चलाया। बाद के दिनों में सड़क किनारे एक खोखा लगाकर मसाले बेचे और फिर ऐसा दौर भी आया जब उन्हें मसालों का शहंशाह कहा जाने लगा। उनके ब्रांड का नाम एमडीएच यानी 'महाशयां दी हट्टी' मसाले के उनके शुरूआती कारोबार से ही निकला नाम है। उनके बारे में एक विशेष बात यह भी है कि जीवन के लगभग अंतिम समय तक वे अपने ऑफिस पहुँचते रहे और कामकाज देखते रहे। शानदार और सक्रिय लम्बी पारी खेलकर विदा हुए मसालों के शहंशाह को हार्दिक श्रद्धांजलि।

Wednesday 18 November 2020

नहीं रहीं मृदुला सिन्हा

 

अपने पीएचडी शोधकार्य के अंतिम चरण में जब मैं उन साहित्यकारों से बात कर रही थी, जिनकी कृतियों पर हिन्दी में फिल्में बनी हैं; तब उसी सिलसिले में मैंने मृदुला सिंहा जी से भी संपर्क किया था। उन दिनों वे गोवा की राज्यपाल थीं लेकिन बिना किसी मध्यस्थ के उनसे बात हुई और यह तय हुआ कि मैं उन्हें अपने सवाल ईमेल से भेजूंगी और वे लिखित रूप में उनके जवाब मुझे भिजवा देंगी। मुझे लग रहा था कि चूँकि वे एक बड़े पद पर हैं और काफी बुज़ुर्ग भी हैं तो शायद हो सकता है कि ये बात आई-गई हो जाए; लेकिन सिर्फ एक-आध बार मुझे रिमांइडर भेजना पड़ा और उसका जवाब भी यह आया कि वे जवाब तैयार कर रही हैं और फिर एक दिन ईमेल से उनके जवाब आ गए।

मुझसे बातचीत में मृदुला जी ने इस बात पर बेहद खुशी ज़ाहिर की थी कि उनकी कृति और उसपर बनी फिल्म पर विशेषरूप से कोई बात करना चाह रहा है। उन्होंने बातचीत में यह भी कहा था कि वे राज्यपाल बाद में हैं; साहित्यकार पहले हैं। आमने-सामने बातचीत की योजना हो तो उन्होंने गोवा आने का आमंत्रण भी मुझे दिया था। मतलब यह कि यह पूरा प्रसंग एक सकारात्मक अनुभव की तरह मेरे ज़हन में दर्ज है।

मृदुला जी के साहित्य को बहुत पढ़ने का मौका मुझे नहीं मिल सका; लेकिन वृद्ध जीवन पर केंद्रित उनकी कहानी 'दत्तक पिता' और उसपर बनी फिल्म 'दत्तक' दोनों ही बेहतरीन काम हैं। गुलबहार सिंह के निर्देशन में 2001 में  बनी यह फिल्म मूल कृति के बेहद सफल और उम्दा सिनेमाई रूपांतरण का उदाहरण है। मौका मिले तो यह फिल्म एक बार ज़रूर देखनी चाहिए।

आज खबर आई कि मृदुला सिंहा नहीं रहीं। मुझे अफसोस रहेगा कि उन्होंने जो विचार मुझसे साझा किए वे उनके रहते एक किताब के अंश के रूप में प्रकाशित नहीं हो पाए। बहुत कुछ की तरह किताब के प्रकाशन पर भी हम जैसों का कोई अख्तियार नहीं है! मृदुला सिंहा जी को भावभीनी श्रद्धांजलि।

Monday 28 September 2020

'इतनी शक्ति हमें देना दाता' के रचयिता को श्रद्धांजलि

 

"इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो न"

पूरा बचपन स्कूलों में हम ये प्रार्थना गाते हुए ही बड़े हुए। और मेरे खयाल से हर किसी को यह प्रार्थना सुंदर लगती होगी। आज भी शायद कुछ स्कूलों में दिन की शुरुआत इसी प्रार्थना से होती है। गीतकार अभिलाष ने फिल्म 'अंकुश' के लिए जब यह गीतनुमा प्रार्थना लिखी होगी, तब उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि उनकी लिखी यह प्रार्थना देशभर के शैक्षणिक संस्थानों का हिस्सा बन जाएगी। जब कभी विद्यालयों में लंबी-लंबी कतारों में करबद्ध होकर आँखें मूँदे खड़े विशाल युवा जनसमूह को वे अपनी लिखी पंक्तियाँ दोहराते; सुनते-देखते होंगे तो निश्चय ही उनका ह्रदय गर्व से प्रफुल्लित हो उठता होगा!

एक लंबे अरसे से कैंसर से लड़ते हुए आज गीतकार अभिलाष का निधन हो गया। उन्हें उनकी प्रार्थना की पंक्तियों के साथ श्रद्धांजलि। वे हमेशा इस प्रार्थना के जरिए, याद किए जाते रहेंगे। नमनय़

"जितनी भी दे, भली ज़िन्दगी दे"!

Tuesday 4 August 2020

अलविदा अल्काज़ी साहब! आप याद किए जाते रहेंगे

इब्राहिम अल्काज़ी भारतीय रंगमंच की दुनिया के शीर्षस्थों में शुमार थे। रंगमंच की दुनिया और उसकी शख्सियतों की मैं बेहद मामूली जानकार हूँ। लेकिन अल्काज़ी साहब का नाम इतने शीर्षस्थ अभिनेताओं को इतने आदर के साथ लेते देखा कि मान लेना पड़ा कि वे निश्चित तौर पर बहुत खास व्यक्ति हैं। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, गोविंद नामदेव, हिमानी शिवपुरी, डॉली आहलूवालिया और भी कई दिग्गज अभिनेता-निर्देशक अपने कौशल के विकास में उनकी बड़ी भूमिका को रेखांकित करते हैं। इन सबकी बातों से जो एक कॉमन बात उभर कर आती है, वह यह है कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के दिनों में अल्काज़ी साहब कठोर अनुशासन के हिमायती होने के बावजूद अपने एक-एक छात्र की प्रगति, बॉडी लैंग्वेज, व्यवहार आदि पर ध्यान रखते थे, और अपने ऑब्जर्वेशन के आधार पर ही उनसे अकेले में बुलाकर बात करते और उनकी समस्या के समाधान का प्रयास करते थे। उनकी सही प्रतिभा को पहचान पाने में मदद करते थे।

एक-एक छात्र पर ध्यान देना, उनकी कमियाँ-कमज़ोरियाँ देख पाना और उन्हें ठीक करने का प्रयास करना, हर एक छात्र की असली प्रतिभा को पहचान जाना; ये एक बहुत बड़ी बात होती है। अल्काज़ी साहब के बारे में जब जब सुना हमेशा मन में आया कि काश मैं भी किसी ऐसे गुरू, किसी शिक्षक से मिल पाती। यह एक सौभाग्य है, जो सबको नहीं मिलता। लेकिन हाँ, मन में यह ज़रूर आता है कि कमोबेश ऐसी शिक्षक ज़रूर बन सकूँ।

श्रद्धांजलि अल्काज़ी साहब! आप याद किये जाते रहेंगे।

Friday 31 July 2020

सद्गति

आज हिन्दी साहित्य के पुरोधा प्रेमचंद का 140वाँ जन्मदिन है। मुझे सुबह से बार-बार 'सद्गति' का ध्यान आ रहा है। इस कहानी को हिंदी की चुनिंदा प्रभावी और उम्दा कहानियों में शामिल किया जाता है।

'सद्गति' पर भारतीय सिनेमा के सुप्रसिद्ध निर्देशक सत्यजीत रे ने 45 मिनट की एक छोटी सी फिल्म बनाई है। जो शुरू से लेकर आखिर तक आपको बांधे रखती है और मात्र 45 मिनटों में उन सारी यंत्रणाओं, उन सारे अत्याचारों का अनुभव आपको करवा देती है; जो हमारे समाज में दलित कही जाने वाली जातियों पर होते रहे हैं। हिन्दी साहित्य पर बने सिनेमा में मैं 'सद्गति' को सबसे बेहतर रूपांतरणों में गिनती हूँ। मेरे खयाल से सभी को यह फिल्म कम से कम एक बार ज़रूर देखनी चाहिए। मुझे इस बात का भी पूरा भरोसा है कि जब यह फिल्म बनी थी; उस समय यदि प्रेमचंद जीवित होते तो वे भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। दुर्भाग्य से अपने जीवनकाल में सिनेमा की दुनिया से जुड़े उनके अनुभव कड़वे रहे थे। इतने अधिक की उन्होंने विस्तार से लिखे अपने एक लेख में साहित्य को दूध कहते हुए तत्कालीन सिनेमा को ताड़ी की संज्ञा दे डाली थी!


Thursday 4 June 2020

अलविदा बासु दा!

साल 2018 के आखिरी महीने की बात है। किसी सुबह करीब ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे का समय रहा होगा। मैंने अपने मोबाइल से मुंबई के एक लैंडलाइन नंबर पर फ़ोन लगाया। घंटी बजी। एक महिला ने फ़ोन उठाया। अभिवादन के बाद मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि क्या मेरी बासु दा से बात हो सकती है?’ महिला ने जवाब दिया- वे अब फ़ोन पर किसी से बात नहीं करते’ तो मैंने उन्हें कहा कि क्या उनसे मिलने का समय मिल सकता है?’ जवाब में वो महिला बोलीं कि नहीं! वे अब बिस्तर से उठ नहीं पाते और किसी से मिलते-जुलते भी नहीं हैं। ये कहते हुए उन्होंने फ़ोन रख दिया।
अब मैं सिर्फ अफ़सोस कर सकती थी। कभी-कभी यूँ ही आप देर कर देते हैं और फिर सिर्फ मलाल रह जाता है। 2014 में जब मैंने साहित्य और सिनेमा के सम्बन्धों पर शोध कार्य शुरू किया था; उन्हीं दिनों या शुरूआती वर्षों में ही मैंने बासु दा से बात करने की कोशिश की होती तो ऐसा बहुत कुछ जानने समझने को मिल जाता, जिससे मैं चूक गयी। 

साहित्य और सिनेमा के बीच की सबसे मजबूत जीवंत कड़ी थे- बासु चटर्जी; ख़ास तौर पर हिंदी सीहित्य और सिनेमा के बीच की। मथुरा के माहौल में पले बढ़े एक बंगाली युवक की दुनिया हिंदी सिनेमा, हिंदी साहित्य और हिंदी रंगमंच से निरपेक्ष नहीं रह सकी थी। बल्कि उनमें इन सबके प्रति एक दीवानगी थी, और इसी दीवानगी ने उन्हें मुंबई पहुँचा दिया। बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने शुरूआती दिनों में उन्होंने रेणु की कहानी पर बनी क्लासिक फिल्म तीसरी कसममें निर्देशक बासु भट्टाचार्य को असिस्ट किया था और शायद उन्हीं दिनों वे सिनेमा निर्माण की बारीकियाँ भी बहुत अच्छी तरह से समझ रहे थे।
इसके ठीक बाद उनकी निर्देशन यात्रा शुरू हुई और उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस साहित्यिक कृति को चुना वो थी राजेन्द्र यादव का सारा आकाश’; जिसे पढ़कर वे बहुत प्रभावित हुए थे। 1969 में रिलीज़ हुई उनकी यह पहली ही फिल्म कुछ बेहतरीन हिंदी फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती है। इसके बाद वो लगातार फ़िल्में बनाते रहे। उनकी अधिकतर फ़िल्मों में निम्न मध्यम वर्गीय परिवार ही केंद्र में रहा। कम बजट की बेहद सरल, सहज और खूबसूरत फ़िल्में बनाने में उन्हें महारत हासिल थी। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच हैपर उन्होंने रजनीगंधाबनाई। जब-जब हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों का नाम आता है तो हर किसी की जुबान पर रजनीगंधाका नाम ज़रूर होता है। साहित्यिक कृति के सफल रूपांतरण के बतौर इस फिल्म को आज भी याद किया जाता है। इसके अलावा पिया का घर’, ‘छोटी सी बात’, 'कमला की मौत', ‘चितचोर’, ‘खट्टा मीठा’, ‘स्वामीऔर त्रिया चरित्रजैसी कई खूबसूरत फिल्मों का निर्देशन बासु दा ने किया।

उनकी फिल्मों का अपना एक अलग व्यक्तित्व है। यानी कि फिल्मों की भीड़ में आप बासु चटर्जी निर्देशित फिल्मों को उनकी विशेषताओं के चलते आसानी से पहचान सकते हैं। उनकी फिल्मों में दृश्य उसी तरह चलते हैं; जैसे जीवन चलता है, जैसे हम और आप जीते हैं। उनकी अमूमन फ़िल्में जीवन का फिल्मीकरण नहीं है। उनकी फिल्मों के गीत-संगीत का भी एक अलग व्यक्तित्व है; न बहुत ऊँचा, न बहुत धीमा बल्कि मद्धिम गति वाला। ऐसे शब्द, ऐसी ध्वनियाँ जी सीधे ह्रदय में उतर जाती हैं। शायद यही मद्धिमउनके जीवन दर्शन का हिस्सा था। वही जीवन जिसकी अपनी कठिनाईयाँ भी हैं, अपने सुख भी हैं और सबसे बड़ी बात कि अदम्य जिजीविषा है।
आज सुबह उनका निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। बासु दा का काम मात्रा और गुणवत्ता दोनों में इतना अधिक और इतने आगे का काम है कि वे हमेशा बहुत आदर के साथ याद किये जाते रहेंगे। अलविदा बासु दा!

Sunday 24 May 2020

जड़ी-बूटी युक्त गरम पानी पीने वाले प्रदेश से हम कुछ तो सीखें


भारत के जिन राज्यों में कोरोना संक्रमण के शुरूआती मामले देखे गये थे, उनमें केरल भी शामिल था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस तरह की खबर बार-बार ध्यान खींच रही है कि भारत में कोरोना से कारगर तरीके से निपटने में केरल सबसे अग्रणी रहा है। कोरोना पीड़ितों की रिकवरी दर और नये संक्रमणों की रोकथाम को लेकर केरल की खूब तारीफ हो रही है। इसके लिए केरल सरकार और स्थानीय प्रशासन के प्रबंधन और सक्रियता की तो तारीफ हो रही है- मलयाली जीवनशैली की कुछ अन्य विशेषताओं ने भी लोगों का ध्यान खूब खींचा है। इन्हीं में एक है वहाँ की स्वास्थ्य के प्रति बेहद सजग नजरिये के साथ विकसित हुई खान-पान की संस्कृति। उनकी खान पान की स्वस्थ आदतों को; मजबूत इम्यून सिस्टम का कारण मानकर; केरल वालों की खूब तारीफ हो रही है। हो भी क्यों न!
अपनी केरल यात्रा की यादें अब भी ताज़ा है। 2018 अंत में जब केरल गयी थी तब दिसम्बर में उत्तर भारत में पड़ने वाली कड़ाके की ठंड की तुलना में वहाँ ठीक विपरीत मौसम था। चिलचिलाती धूप और पसीने से तर-ब-तर कर देने वाला मौसम! कभी-कभी राहत पहुँचाती बारिश की फुहारें! लेकिन इस गरम मौसम में भी एक मलयाली मानुष को आप त्रिशुर स्टेशन पर आइआरसीटीसी कैंटीन में गरम पानी के बदले ठंडा पानी परोसने पर टोकते हुए और नाराजगी जाहिर करते हुए सुनेंगे तो आपको कैसा लगेगा? मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा क्योंकि यह मेरी वापसी के समय का प्रसंग था; और तब तक मैं स्थानीय खान पान की आदतों से न सिर्फ परिचित हो गयी थी बल्कि पिछले तीन दिनों से उसी खान पान का लुत्फ भी उठा रही थी। इसलिए समझ पा रही थी कि कुछ-कुछ लाल रंग लिए गरम पानी यहाँ के स्वास्थ्य सजग लोगों के जीवन का सहज हिस्सा है।
केरल बेहतरीन गुणवत्ता के मसालों का प्रचूर मात्रा में उत्पादन करने वाला राज्य है। इसके बावजूद कम से कम मेरा अपना अनुभव यही रहा कि यहाँ भोजन बनाने में तेल-मसालों का बहुत कम उपयोग किया जाता है। इस बात का अनुभव आपको वहाँ के हर छोटे-बड़े रेस्टोरेंट में होगा। सब्जियां तो प्रायः लगभग उबली हुई होती थीं। मैं जहाँ ठहरी हुई थी वहाँ हर बार भोजन के साथ मीठे के नाम पर सिर्फ केला ही परोसा गया। सुबह के नाश्ते, दोपहर के भोजन और रात के खाने के साथ- पका केला, उबला हुआ केला या फिर भुना हुआ या फिर केले से ही बना कुछ और। ऐसा माना जाता है कि केला मीठा खाने की इच्छा की पूर्ति तो करता है और साथ ही भोजन को पचाने में भी बहुत मदद करता है। चावल के नाम पर वहाँ अधिकतर लोग मोटा चावल खाना ही पसंद करते हैं। चावलों में मोटे चावल स्वास्थ्य के लिए तुलनात्मक रूप से बेहतर माने जाते हैं।
[यह तस्वीर मैंने एक दिन त्रिशुर में खाने से पहले थी]

अब फिर से गरम पानी का ज़िक्र। केरल के खान-पान में मुझे सबसे ज्यादा जिस चीज़ ने आकर्षित किया था; वह यहाँ परोसे जाने वाला पानी ही था। मुझे बाताया गया कि वहाँ लोग साल के बारहों महीने खाने के साथ गरम पानी ही पीना पसंद करते हैं। पारंपरिक तौर पर भी और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के मत से भी ठंडे पानी की जगह गरम पानी का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत-बहुत अधिक लाभकारी माना जाता है। लेकिन यहाँ सिर्फ सादा गरम पानी कहाँ; औषधीय गुणों वाले खास किस्म की जड़ी-बूटियों के साथ उबाला हुआ पानी इस्तेमाल किया जाता है और यही कारण है कि उस पानी का रंग लालिमा लिए होता है। खाने के साथ, खाने से पहले और खाने के बाद जड़ी-बूटी युक्त हल्के लाल रंग का पानी पीना। जब पहली बार मुझे वह पानी पीने को मिला तो मुझे लगा कि पानी गंदा तो नहीं, शायद ग्लास अच्छे से साफ नहीं किया गया हो। मैंने वो पानी सिंक में फेंककर दूसरे ग्लास में जग से फिर से पानी उड़ेला। फिर से पानी का वही रंग और गरमाहट तो थी ही। लेकिन तभी देखा कि सामने वाले टेबल पर उसी रंग का पानी ग्लास में उड़ेल कर मजे से पिया जा रहा है। डरते-डरते मैंने भी पानी को हल्का सा टेस्ट किया और वह पानी मुझे अच्छा ही लगा। सादा गरम पानी मुझसे पिया नहीं जाता रहता तो उन जड़ी बूटियों का ही कमाल कहेंगे कि वह पानी मुझे ठीक लगा, बल्कि धीरे-धीरे बहुत स्वादिष्ट लगने लगा था। मैं खाने के मेज पर उस पानी के परोसे जाने का इंतजार किया करती थी। खाना कम खाया जाता था और वह पानी कई ग्लास पी जाती थी। हर बार पानी पीते हुए यही सोचती थी कि कुछ दिन य़हाँ रह जाऊं तो मैं ये गरम पानी पी-पी कर ही स्वस्थ और एकदम पतली हो जाउंगी।
जहाँ मिठाई के नाम पर ज्यादातर किस्म-किस्म के उबाले या भुने, पके या कच्चे केले से बने व्यंजन खाये जाते हों, और गर्मी में भी गरम और जड़ी-बूटी युक्त पानी पिया जाता हो, वहाँ की खान पान की संस्कृति तो अनुकरणीय होगी ही।
हम लोगों की आदतें तो ये हैं कि कोरोना काल में बाज़ार बंद हुए तो हम सब खुद ही वो सारी चीज़ें घरों में ही बनाने लग गये। बेहिसाब तली-भुनी, मसालेदार और मीठी चीज़ें- मानो पकौड़े-समौसे-मिठाईयों की दुकान और ढ़ाबे हमने अपने-अपने किचन में ही खोल लिये थे। इसकी कीमत भी कोई और नहीं हम ही चुकाएँगे। खान-पान के मामले में हम केरल से थोड़ा-कुछ तो सीखें!

Monday 20 April 2020

गुलमोहर तुझसे मेरा रिश्ता क्या है!


गुलमोहर अचानक खिलते हैं। किसी सुबह उठो तो पता चलता है कि वह पेड़ जो बीते कल तक सिर्फ हरी पत्तियों और टहनियों का पर्याय था, अचानक फूलों से लद गया होता है। फूलों का रंग भी ऐसा कि सबका ध्यान अपनी ओर खींच ले लेकिन वैसा चटक भी नहीं जैसे पलाश के फूल होते हैं! एक संतुलन भरा सम्मोहन! इसलिए भी गुलमोहर, गुलमोहर है। वह एक सरप्राइज़ की तरह आता है!
लेकिन मुझ जैसों के लिए जिसे इस मौसम में अपने पुराने कैंपस (हैदराबाद विश्वविद्यालय) के गुलमोहर की याद शिद्दत से आ रही हो, यह किसी भी सरप्राइज़ से बड़ा; वाकई बहुत बड़ा सरप्राइज़ था कि आज सुबह खिड़की खोलने पर लगभग सौ-डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर पेड़ पर लदे फूल जैसे कह रहे थे, विश्वास करो मैं गुलमोहर ही हूँ! यह एक ऐसा अद्भुत अनुभव था; जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। मैं गुलमोहर के पेड़ पहचानती हूँ; लेकिन इतने दिनों से पता नहीं क्यों उस पेड़ पर कभी नज़र ही नहीं पड़ी और इसलिए इस बार गुलमोहर के फूलों ने ही उस पेड़ से परिचय करवाया। वैसे भी गुलमोहर के पेड़ों की साल भर की तपस्या का हासिल इन दिनों में खिलने वाले ये फूल ही तो होते हैं! जो देखा उसे खिड़की से ही कैमरे में उतारने की कोशिश की, जैसा उतर सका साझा कर रही हूँ।

Sunday 5 April 2020

'शिकारा' देखने के बाद

कश्मीर का दर्द दशकों पुराना है। एक खुशहाल वादी में जो कई दशकों तक पर्यटन और हिन्दी फिल्मों की शूटिंग का पसंदीदा लोकेशन रहा- उस पर न जाने किस की नज़र लग गयी। धीरे धीरे वहाँ की फिज़ा में घृणा और असंतोष का जहर फैलता चला गया। इसके साथ ही पुलिस और फौज का हस्तक्षेप भी बढ़ता चला गया। हमारे पड़ोस के एक पाकदेश ने भी धरती की जन्नत को जहन्नुम की ओर धकेलने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी और धीरे-धीरे कश्मीर कभी नहीं सुलझने वाली समस्या की तरह स्थापित हो गया। कश्मीर दर्दगाह हो गया। दहशतगर्दी, मुठभेड़, पुलिसिया और फौजी अभियानों, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं आदि के बीच आम कश्मीरी पिसता चला गया। खैर 'दर्दगाह' ही सही इसकी अपनी अस्मिता रही है, यह गुमनाम नहीं रहा है। लेकिन इसके साथ गुमनामी की कथा भी जुड़ी हुई है।
इस दर्दगाह के बारे में सोचते हुए कई बार हम उन दर्दगाहोंके बारे में नहीं सोच पाते जो यहाँ से दरबदर हैं। वास्तव में कश्मीर समस्या में कश्मीरी पंडितों का दर्द हाशिये पर ही रहा है। एक मिथक की तरह इसके कई-कई संस्करण और कई-कई व्याख्याएँ मिलती हैं। इस समस्या की ठीक तस्वीर हमारे सामने कभी उभर ही नहीं पाई। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकाराइस स्थिति में एक सार्थक हस्तक्षेप करती है।
1990 के दशक में कश्मीर में क्या हुआ था कि कश्मीरी पंडितों को अपना खूबसूरत आशियाना छोड़ कर प्रतिकूल जलवायु वाले शहरों की ओर पलायन करना पड़ा था? वहाँ सगे-सम्बंधियों जैसे और सहजीवियों की तरह रहने वाले हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन की रेखा कैसे खिंच गयी? कैसे पड़ोसी ही स्वार्थी होकर हैवानियत पर उतर आए? निर्वासित लोगों पर क्या-क्या बीती? कश्मीर की कश्मीरियत पर सिर्फ कश्मीरी मुसलमानों का हक़ है; यह कब से और क्योंकर प्रस्तावित किया जाने लगा? ऐसे कई सवालों के उत्तर इस एक फिल्म में हैं।
इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नहीं बनायी गयी है। प्रतिशोध की भावना इस फिल्म में कहीं नहीं है। यह फिल्म कश्मीरी पंडितों की समस्या का जिम्मेदार किसी धर्म को नहीं बल्कि भटके हुए लोगों को ठहराती है। यह फिल्म वास्तव में घृणा के खिलाफ है। इस फिल्म का मुख्यपात्र अमेरिका के राष्ट्रपति को बार-बार पत्र लिखकर मिलने की इच्छा जताता है ; मिलकर वह उनसे बस इतना पूछ लेना चाहता है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में वे हथियार क्यों भेजे जो वादियों तक पहुँचकर उसके सीने को छलनी करते गए!
फिल्म इस विश्वास के साथ खत्म होती है कि एक दिन अपने ही घर में भटके हुए लोग ठौर ठिकाने पा जाएँगे और कश्मीर से निर्वासित कश्मीरी पंडित भी अपने घरों को लौट पाएँगे। एक खूबसूरत प्रेमकथा के सहारे जैसे घृणा को सात परत नीचे पाताल में दफन कर दिया गया हो। अभिनय, कहानी, फिल्मांकन सब बेहतरीन है। ऐसी फिल्में उजाले की ओर ले जाती हैं।

Saturday 28 March 2020

कोरोना काल का कड़वा सच


महान भारत की आखिरी पंक्ति के इंसानों की किसे सुध है? जिन मजदूरों के कंधों पर शहर टिका होता है, उन्हें बेहद असुरक्षित हजारों किमी की पैदल यात्रा कर गाँव-कस्बों की ओर जाना पड़ रहा है। उनके मालिकों ने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया, सरकारों ने मुँह मोड़ लिया और यदि अब इन्हें बसों में ठूँस ठूँस कर घर पहुँचा भी दिया गया तो उनके गाँवों-कस्बों का क्या जहाँ संक्रमण का भारी खतरा बढ़ेगा और वहाँ इलाज की न्यूनतम सुविधा भी नहीं है। क्या ऐसे रोकेंगे महामारी? ऐसे में सफल होगा लॉकडाउन?
विपदा के दिनों की भी एक अच्छी बात ये होती है कि बची-खुची धुंध भी पूरी तरह छंट जाती और सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता है। समानता के संकल्प के साथ बढ़ने वाला देश जैसे अपना संकल्प भूल कर असमानता को ही लक्ष्य बना बैठा है। सरकारी नौकरों को लॉकडाउन के दिनों में भी भत्ते सहित उनका पूरा का पूरा वेतन बाइज्ज़त दिया जायेगा। अच्छी बात है; लेकिन बाकी लोगों का क्या अपराध है? उदाहरण के लिए कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और स्कूलों में परमानेंट और एडहॉक पढ़ाने वाली फैक्ल्टी बिना बाधा हज़ारों-लाखों का वेतन भोगेगी! उनमें से अधिकांश के लिए यह लॉकडाउन इसलिए आनंद का अवसर बना हुआ है। वहीं इन्हीं जगहों पर गेस्ट बेसिस पर चुनिंदा क्लास पाने वालों को पारिश्रमिक से तो महरूम किया ही गया है; बिना पारिश्रमिक छात्रों तक पाठ्य सामग्री वितरित करने के लिए भी बाध्य किया जा रहा है। इतना ही नहीं दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे अग्रणी विश्वविद्यालय के नॉन कॉलेजिएट या ओपन स्कूल जैसे संस्थानों ने गेस्ट फैकल्टी के पिछले सत्र के पारिश्रमिक तक का इस संकट में भी भुगतान करना अपना कर्तव्य नहीं समझा है।
मजदूरों के लिए कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं। किसानों को कोई देखने वाला नहीं। छोटे कारोबारियों का कोई रहनुमा नहीं! बेरोजगारों के प्रति किसी का कोई दायित्व नहीं। क्या इस संकट काल में किन्हीं सांसदों-विधायकों का वेतन या उनकी सुविधाएँ कम होंगी?
हम सब इस देश के नागरिक हैं, लेकिन सरकार और व्यवस्था हमारी हैसियत और स्थिति के हिसाब से हमसे व्यवहार करती है। कुछ लोग इस लॉकडाउन में कितना अच्छा खाएँ- कितना अच्छा पीएँ, कौन सा डाइट उन्हें फिट रखेगा की चिंता कर रहे हैं, तो वहीं कई लोग पानी के संकट, और भुखमरी की कगार पर हैं। सारी कवायद; सारे ताम-झाम ही समर्थ लोगों के हित में होते हैं। जो समर्थ नहीं हैं; वे भगवान भरोसे हैं। वे तमाशा हैं और वे उन चूहों की तरह भी हैं, जिन पर मनचाहा प्रयोग किया जा सकता है!