Saturday 2 July 2016

उस दिन का बाकी

11 मई 2014, रविवार की सुबह मैं बहुत परेशान थी । हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी एडमीशन के लिए इंटरव्यू होना था । इंटरव्यू में सिनॉप्सिस की  प्रिंट कॉपी लेकर जानी थी, जो मेरे पास नहीं थी । उन दिनों मैं एम.फिल के काम में बहुत व्यस्त थी । स्वाभाविक था कि पीएचडी सिनॉप्सिस के लिए बहुत समय नहीं मिल पा रहा था । मैंने सोचा था शनिवार शाम तक सिनॉप्सिस तैयार करके  प्रिंट ले लूँगी । रविवार को कैंपस की फोटोकॉपी या कम्प्यूटर प्रिंटिंग की दुकानें अक्सर बंद रहती हैं । सिनॉप्सिस तैयार करते हुए लेकिन वक्त का ध्यान ही नहीं रहा और रात के आठ-साढ़े आठ बज गये । तब तक कम्पयूटर प्रिटिंग की सभी दुकाने बंद हो चुकी थी । अब सुबह ही कुछ हो सकता था ।
सुबह विभाग पहुँचने से पहले सभी प्रिटिंग की दुकाने साइकिल मार-मार के देख आई थी । आशंका के अनुरूप सारी दुकाने बंद थीं । अधिक घबराने का कारण यह था कि इंटरव्यू सूची में पहला नाम मेरा ही था । विश्वविद्यालय का एक कम्प्यूटर सेंटर है, जहाँ विद्यार्थियों के लिए प्री-पेड प्रिंट की सुविधा उपलब्ध है । यह रविवार को भी खुला होता है, लेकिन इसके खुलने का समय दस बजे होता है, जबकि ठीक दस बजे से मेरा इंटरव्यू तय था । मेरे पास एक ही विकल्प था कि विभाग में प्रिंटिंग के लिए अनुरोध करूँ । मैं सवा नौ बजते-बजते विभाग पहुँच गयी और बाशा जी (विभाग के मुख्य किरानी) से इस आशय का अनुरोध किया । पांच-छः पृष्ठों का ही प्रिंट लेना था लेकिन उन्होंने मना कर दिया । एम.फिल के दिनों से उनसे पहचान थी । कार्यालयी कार्यों के लिए अब तक उनसे ठीक-ठाक संवाद का अनुभव था । उस दिन वे अजनबी सरीखा व्यवहार कर रहे थे । उन्होंने कहा कि यदि विभागाध्यक्ष कह दें तो प्रिंट मिल जाएगा । उन दिनों प्रो. वी. कृष्णा हमारे विभागाध्यक्ष थे । अब उन्हीं का सहारा था । साढ़े नौ बज चुके थे । उनके आते ही मैंने उन्हें नमस्ते कहा, उन्हें बताया कि मैं विभाग से एम.फिल कर रही हूँ, यह भी बताया कि प्रिंट क्यों नहीं ले पायी । उन्होंने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया और कहा कि “इन सब चीज़ों की तैयारी पहले से कर के रखी जाती है, मैं कुछ नहीं जानता ।” उन्होंने प्रिंट देने से साफ़ इनकार कर दिया । वे मुझे नहीं पहचान पा रहे थे, यह दुखद नहीं था, लेकिन उस दिन का उनका व्यवहार बहुत बुरा था । वे भले गुस्सा होते, फटकारते लेकिन प्रिंट देने से तो मना नहीं करना चाहिए था । यदि वे मुझे किसी दूसरे विश्वविद्यालय से आयी हुई छात्रा समझ कर ऐसा व्यवहार कर रहे थे, तब तो वह और भी बुरा था । मेरे गाइड आ जाते तो उनके प्रिंटर से प्रिंट ले सकती थी, लेकिन वे अब तक नहीं आये थे । उन्हें फ़ोन करके यह सब बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी ।
यह हो सकता था कि मैं प्रिंट के लिए कम्प्यूटर सेंटर जाती और मेरी जगह बाद के क्रम के विद्यार्थी इंटरव्यू देने जाते । बाद में आकर मैं अपने इंटरव्यू के लिए आग्रह करती या बिना प्रिंट लिए ही इंटरव्यू के लिए चली जाती । दोनों ही स्थितियाँ इंटरव्यू के लिए मेरी अगंभीरता और घोर लापरवाही प्रकट करती । मेरा यह ‘इम्प्रैशन’ मुझे एड्मीशन न दिला पाने के लिए काफी होता । कॉम्पीटीशन भी इतना टफ था । जेआरएफ वाले छात्र ही अधिक थे । मैं तब जेआरएफ नहीं थी और मुझे उनके साथ कम्पीट करना था । इन्हीं सब ख्यालों, चिंताओं में उलझी मैं बेहद तनाव के साथ विभाग के ऑफिस से बाहर आई, जहाँ इंटरव्यू देने आये सभी छात्र जमा हो रहे थे । वहीं मैंने अपने एम.फिल के सहपाठियों से झेंप के साथ अपनी मुश्किल बतायी । अधिकांश सहपाठियों ने आश्चर्य जताया । सभी इंटरव्यू को लेकर प्रेशर में थे और मेरे मामले का अतिरिक्त तनाव वे नहीं लेना चाह रहे थे । इसलिए इधर-उधर हो गये । लेकिन एक सहपाठी विशाल ने कुछ देर सोचकर कहा कि आबिद के पास प्रिंटर है । आबिद भी मेरा सहपाठी ही था । दिल्ली विश्वविद्यालय में हमने एम.ए. भी साथ-साथ किया था । उस दिन आबिद का भी इंटरव्यू था लेकिन बाद में था, इसलिए वह अभी तक पहुँचा नहीं था । प्रिंट लेने कौन जाए और कैसे जाए यह समस्या थी । विशाल ने कहा कि उसके साथ उसका एक दोस्त आया है, मैं उसे अपनी पेनड्राइव दे दूँ तो वो बाइक से जाकर फटाफट प्रिंट ले आएगा । डूबते को तिनके का सहारा मिला था । दस बजने में आठ-दस मिनट ही बचे थे । उसे जाते-जाते मैंने कहा कि प्लीज जल्दी आइएगा । मैं यह भी सोच रही थी कि आबिद भी अगर हॉस्टल से निकल चुका होगा इंटरव्यू देने और उस लड़के को कमरा बंद मिला तो क्या होगा ! या आबिद ने प्रिंट देने से मना कर दिया, या बिजली नहीं हुई या फिर मेरी पेनड्राइव ही सही से ओपन नहीं हुई तो, वगैरह-वगैरह । जितनी भी आशंकाएँ मन में आ सकती थी, उस वक़्त आए जा रही थी । मेरी नज़र उसके जाने के बाद से गेट पर ही लगी हुई थी । तब तक लगभग सभी प्रोफ़ेसर आ चुके थे और विभागध्यक्ष के ऑफिस में जमा हो चुके थे । इसी बीच बुलावे की घंटी बजी । मेरी सांसें जैसे ऊपर की ऊपर ही रह गयी । मैं विभागाध्यक्ष के कक्ष की तरफ गयी तभी मुझे बताया गया कि घंटी का बजना उसका परिक्षण करने के लिए था । यह सुनकर थोड़ी राहत मिली और आँखें फिर से गेट की ओर टिक गयीं । यह सब लिखते-लिखते भी मैं उसी पल को जी रही हूँ । ह्रदय गति ठीक उसी दिन की तरह असमान्य हुए जा रही है । तीन-चार मिनट भी नहीं बीते होंगे कि दुबारा घंटी बजी । वह एक दम सिनेमाई दृश्य की तरह का संयोग था । एक तरफ घंटी बजी दूसरी तरफ वह लड़का आता हुआ दिखा । यह मेरे लिए कैसा क्षण रहा होगा यह मैं अब भी उसी तरह महसूस कर सकती हूँ, लेकिन समझा नहीं सकती । मैं भाग कर उस लड़के तक पहुँची, शुक्रिया कहा या नहीं अब याद नहीं है, उससे प्रिंट लिया और विभागाध्यक्ष के कक्ष की तरफ लपकी ।
वहाँ पहुँच कर मैं सामान्य होने की कोशिश कर रही थी । मैंने जब अपना सिनॉप्सिस आगे बढ़ाया तो वी.कृष्णा जी ने पहला सवाल ही यह पूछा कि आप तो कह रही थीं कि सिनॉप्सिस तैयार नहीं हैं, अब यह आपके पास कहाँ से आ गया ! मैंने कहा सर मैंने आपसे यह नहीं कहा था कि सिनॉप्सिस तैयार नहीं है यह कहा था कि दुकाने बंद होने की वजह से मैं प्रिंट नहीं ले सकी हूँ । हो सकता है उनके खराब व्यवहार की वजह उनकी गलतफहमी रही हो । इसके बाद उन्होंने पूछा कि फिर इतनी जल्दी प्रिंट कहाँ से मिल गया ? मैंने कहा एक दोस्त के पास प्रिंटर है, उसी से मिला । फिर सिनॉप्सिस पर बात हुई । अच्छी बातचीत हुई । अमीर खुसरो पर केन्द्रित शोध प्रस्ताव था, जिस पर व्यवहारिक दिक्कतों की आशंका के कारण मैं काम तो नहीं कर सकी लेकिन उस दिन निस्संदेह प्रस्तावित शोध विषय का प्रभाव ही था कि मेरा चयन हो सका । यह भी दिलचस्प ही है । इस पर किसी दिन अलग से लिखने की कोशिश करूँगी ।
विशाल सिंह एम.ए. के दिनों से हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र रहा था । वह एम.ए. में अपने बैच का टॉपर था । होनहार माना जाता था और पीएचडी प्रवेश के लिए सर्वाधिक योग्य भी । पता नहीं किस वजह से उसका चयन नहीं हो सका ! उससे मेरा संवाद बेहद कम था और उस दिन तो मैं उसकी एक कॉम्पीटीटर थी, यह जानते-समझते हुए भी उसने मेरी मदद की थी, यह बहुत बड़ी बात थी, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती । फिलहाल वह हैदराबाद के ही ‘इंगलिश एण्ड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहा है । मेरी दुआ है कि वह हमेशा बेहतर करे और सफल बने ।
आबिद हुसैन एम.ए. के दिनों से सहपाठी तो था लेकिन उससे एक तरह का दुराव ही रहा था । अब भी है । वह चाहता तो उस दिन प्रिंट न देने के लिए कोई बहाना कर देता लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । उसका पीएचडी में चयन तो हुआ लेकिन बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में एड्मीशन मिलने के कारण वह वहाँ चला गया ।
विशाल के उस दोस्त के बारे में तो कुछ भी नहीं जानती जो प्रिंट लेने गया था और समय से मेरे पास पहुँचा भी गया था !
उस दिन के लिए मैं इन लोगों के प्रति बहुत कृतज्ञ महसूस करती हूँ । ठीक से किसी को शुक्रिया भी नहीं कह पायी, उस दिन का वह बाकी शुक्रिया आज कह रही हूँ । बहुत-बहुत शुक्रिया ।

[ एक और प्रसंग है, जिसका जिक्र कर ही देती हूँ । उस दिन सौरभ का भी इंटरव्यू था । उनके पास भी प्रिंट नहीं था । वे साउथ कैंपस के एक ह़ॉस्टल में रुके थे । हम दोनों ने अपना सिनॉप्सिस एक दूसरे को मेल कर दिया था कि दोनों में जिसे पहले प्रिंट मिले, वह प्रिंट लेकर दूसरे को तुरंत सूचित कर दे । जब मैं प्रिंट के लिए साइकिल लेकर नार्थ कैंपस में भटक रही थी तब वे यूनिवर्सिटी के साउथ कैंपस और उसके ठीक पीछे के गोपनपल्ली बाजार में भटक रहे थे । वहाँ भी प्रिंट नहीं मिल सका था । कहीं और जाने का समय भी नहीं था और शहर भी अंजान था । उनका इंटरव्यू लिस्ट में सातवें या आठवें क्रम पर नाम था । अपने इंटरव्यू के ठीक बाद मैं साइकिल से कम्प्यूटर सेंटर तक गयी । प्रिटिंग के लिए मेरी दोस्त दीपिका ने अपनी प्री-पेड रसीद दी थी । उस दिन के लिए दीपिका का भी शुक्रिया कहना है । जल्दी में प्रिंट लेकर लौटी तब तक सौरभ ऑटो से विभाग पहुँच गये थे । वे थोड़े चिंतित तो थे लेकिन मेरी तरह उन्हें तनाव नहीं था । वे यहाँ के इंटरव्यू को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे थे । अपने शैक्षणिक रिकॉर्ड की वजह से उन्हें कहीं न कहीं ऐसा लगता था, कि दिल्ली विश्वविद्यालय में उनका चयन हो ही जाएगा । हालाँकि यह उनकी ग़लतफ़हमी थी । वैसे जो हुआ अच्छा ही हुआ !]


# Department of Hindi, University of Hyderabad, Ph.D. Interview, Coporation of Classmates, Thanks giving

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