साल
2012 के शुरूआती महीनों की बात है हम लोगों का एम.ए. का फाइनल सेमेस्टर चल रहा था।
हमारे कोर्स में मार्खेज़ का उपन्यास ‘एकांत के सौ
वर्ष’ भी शामिल था। प्रभात रंजन ने मार्खेज़ पर एक किताब लिखी
है ‘मार्खेज़ की कहानी’। यह एक अच्छी
किताब है। तब अधिकांश विद्यार्थियों ने मार्खेज़ को समझने के खयाल से इसे पढ़ा था।
उन्हीं दिनों हमें एक दिन यह सूचना मिली कि हमारे विभाग के प्रो. अपूर्वानंद ने
प्रभात रंजन को मार्खेज और ‘एकांत के सौ वर्ष’ पर हमसे बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया है। हम लोग बड़े उत्सुक थे कि
चलिए जिन्होंने किताब लिखी है उन्हें सुनने का मौका मिलेगा, बहुत
कुछ जानने को मिलेगा जो परीक्षा में काम आएगा। प्रभात रंजन आये। लगभग एक घंटे तक
उन्होंने अपनी बात रखी और हमसे बात की। यकीन मानिये उस एक घंटे में उन्होंने जो
कुछ भी बोला, वह कहीं से महत्वपूर्ण या उपयोगी नहीं था।
अफ़सोस हो रहा था कि फ़ालतू में हमने समय बर्बाद किया। उनका वक्तव्य बेहद सुस्त और
उबाऊ था। पूछे गये सरल प्रश्नों पर भी वे क्या और क्यों बोल रहे थे वही जानें!
लेकिन आज तक मैंने इस बात का कहीं जिक्र तक नहीं किया। इसका कारण यह था कि किसी का
अच्छा वक्ता होना या नहीं होना उसकी योग्यता का परिचायक नहीं है। कुछ लोग कहने के
बजाय लिखकर अपनी बात अच्छे से अभिव्यक्त कर पाते हैं! जो भी हो किसी का अच्छा
वक्ता या अच्छा लेखक नहीं होना आज भी मेरे लिए उपहास करने का विषय नहीं है। मैं
खुद भी अच्छा नहीं बोल पाती!
आज
इस प्रसंग का जिक्र करने की वजह यह है कि कल प्रभात रंजन ने 90 वर्ष के हिंदी के
प्रतिष्ठित आलोचक नामवर सिंह को एनडीटीवी पर प्रसारित उनके इंटरव्यू के बाद निशाना
बनाते हुए एक पोस्ट लिखा कि उनके पास कहने को कुछ नहीं बचा है। अपने गुरू सुधीश
पचौरी को,
जिनका बोला हुआ तो छोड़िये लिखा हुआ भी मुझे किसी काम का नहीं लगता
और प्रशासनिक अधिकारी के नाते जिनके छात्र विरोधी दोहरे व्यक्तित्व के हम सब गवाह
रहे हैं, को सम्मान के साथ ‘कोट’
करते हुए उन्होंने लिखा है कि नामवर सिंह तो कब के खाली हो चुके
हैं!
अब
उस इंटरव्यू की प्रकृति पर बात करते हैं जो अमितेश कुमार ने नामवर सिंह से लिया
है। इसमें जो सवाल पूछे गये हैं वे इस तरह के हैं कि- आप संगोष्ठियों में अब नहीं
जाते हैं कैसा लगता है, पान खाते हैं या नहीं,
आप ने अभी भगवान को याद किया क्यों, इन
तस्वीरों में कौन लोग हैं वगैरह! इन अनौपचारिक सवालों का जो जवाब दिया जा सकता है,
वही तो दिया जाएगा या फिर उसमें साहित्य, आलोचना
और देश की चिंता घुसेड़ दी जाएगी?
इस
तरह की बातों का जवाब देते हुए भी नामवर सिंह बेहद संतुलित रहे! नहीं भी होते तो
क्या इसे उम्र का तकाजा नहीं माना जाना चाहिए? प्रभात रंजन
के वक्तव्य से परिचित होने के कारण मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि ऐसी ही सवालों
का तारतम्य जवाब दे पाने में भी प्रभात रंजन इस उम्र के नामवर जी से भी बहुत पीछे
रह जाएँगे। अभी भी अगर किसी विषय पर नामवर जी के साथ प्रभात रंजन को वक्तव्य के
लिए खड़ा कर दिया जाए तो निश्चित तौर पर तुलनात्मक रूप से प्रभात जी बहुत ही
निष्प्रभावी साबित होंगे।
इंटरव्यू
के द्वारा नामवर सिंह को एक्सपोज़ करने के लिए प्रभात रंजन ने अमितेश कुमार को
धन्यवाद कहा है, जबकि असल सच यह है कि प्रभात रंजन ख़ुद इस
तरह की टिप्पणी करके एक्सपोज़ हुए हैं।
हिन्दी
साहित्य की पढ़ाई करने के कारण स्वाभाविक रूप से नामवर सिंह के लिखे हुए से मेरा
परिचय रहा है। कोई दो मत नहीं है कि वे बहुत अच्छे आलोचक रहे हैं, और उन्होंने एक लम्बे अरसे तक हिन्दी साहित्य को लोकप्रिय बनाने और समृद्ध
करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसके बावज़ूद नामवर सिंह के लिखे और
कहे की आलोचना हो सकती है और अकादमिक जगत से जुड़े मसलों पर उन्होंने जो भी अच्छा
या बुरा किया है, उसकी आलोचना हो सकती है। इन पहलुओं पर मैं
भी नामवर सिंह के प्रति आलोचनात्मक रही हूँ, फिर भी एक
वयोवृद्ध आलोचक के लिए अकारण अपमानजनक बातें करने और अपने पोस्ट और कमेंट में उनकी
ज़रूरी आलोचना करने या असहमति दर्ज करने के बजाय उनकी वृद्धावस्था का मखौल उड़ाना
खराब संस्कार और अवसरवादी मानसिकता का परिचायक है। यानी नामवर सिंह के व्यक्तित्व
और आलोचना दोनों में कई विरोधाभास खोजे जा सकते हैं, तीखी
आलोचना और घोर असहमति की तमाम संभावनाएँ हैं और यह सकारात्मक भी होगा- लेकिन इतना
तय है कि प्रभात रंजन जैसी मानसिकता के साथ इस तरह का कोई महत्वपूर्ण काम कभी नहीं
किया जा सकता!
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