काशीनाथ
सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ के एक खंड ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागीं’ पर आधारित फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ बनकर हालाँकि कई सालों पहले तैयार हो गयी थी, लेकिन
इस फिल्म को लगातार कई चुनौतियों से जूझना पड़ रहा था। सेंसर बोर्ड ने इसपर आपत्ति
की, विरोधों का सामना करना पड़ा, अदालतों
के चक्कर लगाने पड़े, तो कभी पूरी की पूरी फिल्म ही लीक हो
गयी। इन सब अवरोधों को झेलते हुए सालों बाद अखिरकार इस शुक्रवार यह फिल्म रिलीज़
हुई है। फिल्म युनिट खासकर निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी के सकारात्मक दृष्टिकोण
का ही परिणाम कहा जा सकता है कि उन्होंने हार नहीं मानी, निराश
नहीं हुए और डटे रहे।
दरअसल
पूरी फिल्म उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ के साथ किया गया एक बेहद सकारात्मक सृजनात्मक प्रयोग है। फिल्म दर्शकों को
न सिर्फ लगातार बांधे रखती है, बल्कि हमारे समय की बहुत सारी
समस्यायों और चिंताओं से भी रू-ब-रू करवाती है। एक ओर संस्कृति को बचाने और दूसरी
ओर संस्कृति को उदात्त और व्यवहारिक बनाने के बीच की जो कशमकश इस फिल्म में दिखाई
गयी है, वह मूल उपन्यास के कथ्य से कहीं आगे निकल जाती है।
निर्देशक
ने उपन्यास के कई अन्य खंडों से भी काम की चीजें निकालकर उन्हें इस फिल्म का
हिस्सा बनाया है। चाय की दुकान पर कहने को बकैती करने वाले लोग काशी के इतिहास से
लेकर अमेरीकी साम्राज्यवाद, बाजारवाद, बेकारी, साम्प्रादायिकता और जातिवाद जैसे विषयों पर
बातों बातों में इस तरह की टिप्पणियाँ करते हैं, जो आंखें
खोलने वाली होती हैं। उदाहरण के लिए यह कि 1992 के बाबरी
विध्वंस की देन यह है कि इसने इस देश का बंटवारा किये बिना ही फिर से देश को बांट
कर रख दिया! या यह कि युवा उम्र के अधिकांश विदेशी सैलानी जो बनारस में जमे रहते
हैं वे मनी और मशीन से उबे हुए लोग नहीं हैं, बल्कि बेरोजगारी
भत्ते पर यहाँ आकर मौज उड़ाने वाले लोग हैं। बदलते दौर के और भी बहुत सारे आयाम
बहुत सारे पक्ष- धर्म, बाजार, पाखंड,
साधारण जन, जीवनयापन की चुनौतियाँ आदि सबके सब
इस फिल्म में शामिल हैं। फिल्मांकन, दृश्य संयोजन, निर्देशन, और फिल्मकार की संवेदना का पक्ष सब
प्रशंसनीय है। जहाँ तक अभिनय पक्ष की बात है तो मुझे सन्नी देओल का अभिनय जरूर
थोड़ा कम प्रभावी लगा! लेकिन इसके अलावा हर किसी का काम मन पर छाप छोड़ने वाला है।
सौरभ शुक्ला, साक्षी तंवर, रवि किशन,
अखिलेन्द्र मिश्र, सीमा आजमी, मिथिलेश चतुर्वेदी, राजेन्द्र गुप्ता, मुकेश तिवारी, फैसल रशीद सहित सभी कलाकारों ने
बेहतरीन काम किया है।
फिल्म
की बड़ी खासियत यह है कि वह बड़ी से बड़ी बातें बहुत मनोरंजक तरीके से समझा देती
हैं। लेकिन मोटी बुद्धि की कसम खाए लोगों को फिर भी कई बार स्पष्ट बातें भी समझ
में नहीं आती! आप फेसबुक खंगालेंगे तो अपनी पूरी बुनावट में साम्प्रादायिकता
विरोधी और समरसता का समर्थन करने वाली इस फिल्म को एक खास विचारधारा के लोग
अयोध्या में रामंदिर निर्माण का समर्थन करने वाली और हिंदूवाद की पताका उठाए फिल्म
कह कर प्रचारित कर रहे हैं! या तो यह मूर्खता या कोई शातिर एजेंडा! जो भी है
विस्मय में डालने वाला है!
मेरे
खयाल से इस खूबसूरत और अर्थपूर्ण फिल्म को देखने के लिए जरूर जाना चाहिए। ऐसी
फिल्में कम बनती हैं। इस फिल्म में गंगा का घाट ही नहीं, किनारे का पूरा जनजीवन है, पारंपरिक भदेसपन है,
राजनीति है, पप्पू की चाय की वह दुकान है,
जहाँ बहस का दुर्लभ लोकतंत्र कायम है। लेकिन मोहल्ला अस्सी में
दाखिल होते हुए यह भी ध्यान रहे कि इसी फिल्म की एक पात्र कैथरीन के मुंह से
कहलवाया गया है, कि ज़लील होना और ज़लील करना अस्सी की
संस्कृति है।
No comments:
Post a Comment