Wednesday 27 July 2016

मदारी : दोहराव के बावजूद भी प्रभावी

        कुछ फ़िल्में सीधे दर्शकों की आँखों में धूल झोंक जाती हैं । कुछ खालिस कमाई के लिए ही बनती हैं । और कुछ फ़िल्में ड्रामा, एक्शन, कमाई के साथ ही एक उद्देश्य या मुद्दा लेकर भी चलती हैं । मदारीऐसी ही एक फिल्म है । हालांकि इस फिल्म पर इससे पूर्व की बहुत सी फिल्मों के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं, मसलन रंग दे बसंती’, ‘ए वेडनस डे’, ‘हाइवेलेकिन आज से दस साल पहले 2006 में तनवीर खान द्वारा निर्देशित डेडलाइन सिर्फ चौबीस घंटेनामक फिल्म हुबहू इसी की तरह की थीम पर बन चुकी है । इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि उस फिल्म की मुख्य भूमिका में भी इरफ़ान खान ही हैं जो एक बहुत बड़े निजी अस्पताल के संस्थापक डॉक्टर की छोटी सी बच्ची का अपहरण कर लेते हैं । उसके पीछे भी उस डॉक्टर को सबक सिखाना ही होता है क्यूंकि इरफ़ान खान का बच्चा पैसे न होने के कारण उस डॉक्टर की असंवेदनशीलता का शिकार हो कर मर जाता है । अपहरणकर्ता (इरफ़ान खान) डॉक्टर को उसकी गलती का एहसास दिलाकर, बच्ची को सुरक्षित लौटा देता है । इस फिल्म में बच्ची का अंत में अपने अपहरणकर्त्तओं से लगाव हो जाता है । ठीक वैसा ही मदारी में भी हुआ है । फर्क सिर्फ इतना है कि उस फिल्म में एक डॉक्टर मात्र को सबक सिखाने के लिए यह सब किया जाता है, जबकि मदारी में बेहद विस्तृत फलक पर इसका ताना-बाना बुना गया है । इसमें सीधे सत्ता या व्यवस्था को निशाना बनाया गया है । सरकार और पूरे सरकारी तंत्र को सवालों के घेरे में लिया गया है । सोई हुई जनता को आँखें खोलने के लिए कहा गया है ।
स्वतंत्र रूप से यह फिल्म इसलिए भी छू जाती है कि इसमें सब बेहद स्पष्ट है । मुखर है । कहीं कोई लाग-लपेट नहीं है । सबसे महत्वपूर्ण कि यह सब प्रभावी ढ़ंग से फिल्मांकित किया गया है । फिल्म अपने उद्देश्य में ईमानदार है, इसमें सदिच्छा है, बाकी इसके साथ यह सच भी कहना ही होगा कि ऐसी बातें कई फिल्मों में कई बार दुहरायी जा चुकी हैं ।

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