एक मुशायरे में पाकिस्तान के इंकलाबी शायर हबीब ज़ालिब ने अपनी नज़्म ‘दस्तूर’ सुनाने के क्रम में, उससे जुड़ा वाकया सुनाया था । यह वाकया पाकिस्तान में जनरल अयूब ख़ान के फौजी तानाशाही शासन के ख़ौफनाक दिनों का है । आज इस अज़ीम शायर का जन्मदिन है । उन्हें याद करते हुए यह वाकया साझा कर रही हूँ !_______________________________________________
“पाकिस्तान बनने के बाद जब हमारे ख़्वाब एक-एक कर बिखरने लगे, टूटने लगे तो अपने हमख़यालों को हमने ढूँढना शुरू किया कि किस तरह से हम मुल्क
में आज़ादी, ज़म्हुरियत (लोकतंत्र), मुआशी
(आर्थिक) आज़ादी पैदा कर सकते हैं । तो ये नज़्म मैंने ‘दस्तूर’
लिखी थी । जो मैंने एक मुशायरे में पढ़ी, मरी(पाकिस्तान
का एक शहर) में, और तमाम.... पाकिस्तान की करीम(क्रीम) वहां
मौजूद थी। खौफ़ से पत्ता नहीं हिलता था । और.... के मैंने एक नज़्म पढ़ दी –
....‘दीप जिसका महल्लात ही में जले’ जब मैंने
ये मिसरा पढ़ा तो करम हैदरी मेरा पाजामा खींचने लगा! वहाँ पाजामा ही पहनते थे तब तक,
अब तो मैंने पतलून भी पहन ली यहाँ आकर, तो
मैंने कहा कि भई अब पीछे हट जा!”
'दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद
लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो
जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे
दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं
नहीं मानता, मैं नहीं जानता..........'
“जब मैंने ये नज़्म ख़त्म की, मुशायरा ख़त्म हो गया ।
और...... पब्लिक मेरे साथ मरी रोड पे आ गयी । एक सीनियर शायर ने कहा- ‘मौका नहीं था’ मैंने कहा – ‘मैं
मौका परस्त नहीं हूँ’!!”
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