Tuesday, 23 May 2017

यादों में माधुरी जी

15 दिसम्बर 1958 को महाराष्ट्र के पुणे में जन्मी माधुरी उमराणीकर ने पुणे विश्विद्यालय से बीए और एलएलबी की पढ़ाई के अतिरिक्त रूसी भाषा में एडवांस्ड डिप्लोमा किया था। मृत्युपर्यंत वे भारत के एक महत्वपूर्ण प्रतिरक्षा संस्थान बीडीएल, हैदराबाद के रूसी अनुवाद प्रभाग में कार्यरत रहीं। मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी और रूसी भाषाओं पर उनका प्रायः समान अधिकार था। इन भाषाओं की शब्द-संपदा में उनकी विशेष अभिरूचि और विशेषज्ञता थी। जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने रूसी भाषा से हिन्दी और मराठी में कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद किये थे। इनमें से कुछ ही उनके जीवनकाल में प्रकाशित हो सके थे।

हैदराबाद में मैथिलीभाषी प्रवासियों की ‘देसिल बयना’ नामक एक संस्था है। हैदराबाद आकर सौरभ इस संस्था से जुड़ गये थे। हमारी शादी के बाद मैं भी अक्सर उनके साथ इस संस्था के कार्यक्रमों में जाने लगी।  माधुरी जी से मेरी पहली भेंट इसी संस्था की एक मासिक गोष्ठी में हुई थी। हम संस्था के अध्यक्ष चन्द्रमोहन कर्ण जी के आवास पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान मिले थे। अपनी व्यस्तताओं और कम अभिरूचि के कारण माधुरी जी संस्था के सामान्य कार्यक्रमों में प्रायः नहीं आती थी। उस दिन का कार्यक्रम इस अर्थ में विशेष था कि कार्यक्रम के बाद कर्ण जी ने सभी सदस्यों और उनके परिजनों के लिए एक छोटा सा भोज भी रखा था। उस दिन संस्था के लगभग सभी सदस्यों से मेरी पहली मुलाकात हो रही थी। सभी ने बहुत स्नेह और अपनेपन से स्वागत किया था। उसी दिन बिना किसी औपचारिक भूमिका के माधुरी जी ने जो कहा, वह मन को छू गया था, उन्होंने कहा- ‘कभी भी माँ की याद आये तो मेरे घर चली आना।’ इस पहली भेंट में ही हमारे बीच एक आत्मीयता स्थापित हो गयी थी।
मेरी ही तरह माधुरी जी की मातृभाषा भी मैथिली नहीं थी। उनकी मातृभाषा मराठी थी। उनके पति मोहन मुरारी झा संस्था के सक्रिय सदस्य हैं। इस तरह माधुरी जी का भी संस्था से जुड़ाव हो ही गया था। उनके आवास पर सम्पन्न हुई एक मासिक गोष्ठी में उनके आत्मीय आतिथ्य की सौरभ आज भी चर्चा करते हैं। उनकी हाज़िर जवाबी, हास्यबोध और स्पष्टवादिता की तारीफ भी उन्हें जानने वाले लगभग सभी लोग करते हैं।
उनके साथ कुछ-कुछ अंतराल पर मेरी कुल तीन मुलाकातें ही हैं। दो मुलाकातें देसिल बयना के कार्यक्रमों में हुईं। तीसरी मुलाकात संस्था की एक सदस्य शारदा झा के एक हिन्दी कविता संकलन के लोकार्पण के अवसर पर हुई थी। यह संकलन क्रियेटिव कैंपस नामक जिस प्रकाशन संस्था से प्रकाशित हुआ था, उसकी स्थापना कुछ दिनों पहले ही माधुरी जी के पति मोहन जी ने की थी। उस दिन उनके पैर में चोट की वजह से सूजन थी फिर भी वह प्रसन्नचित्त थीं। उस दिन बहुत लम्बा समय हमने साथ में बिताया। माधुरी जी डायबिटिक थीं और उन्हें ब्लडप्रेशर से जुड़ी शिकायते भी थीं, इसलिए अपने साथ में दवाईयां लेकर चला करती थीं। उन्होंने मुझसे पूछा- यहाँ कुछ खाने को मिलेगा आसपास? खोजने पर सामने ही छोटी सी कैंटीन दिखाई दे रही थी। मैंने कहा कि यहाँ पूछ लेते हैं, कुछ मिल जाये शायद। उन्होंने वड़ा खाया और अपनी दवाईयाँ ली। मैंने चाय पी। इसी दौरान उन्होंने मुझे कहा कि- ‘संस्था के लोग मुझे बार-बार कहते हैं कि मैं मैथिली में भी कुछ लिखने की कोशिश करूँ। मैं मैथिली समझ तो लेती हूँ लेकिन इस भाषा में लिख पाना संभव नहीं लगता। मैंने उनसे कहा कि आप जिस भाषा में सहज हैं, और जिसमें बेहतर लिख सकती हैं, उसी भाषा में लिखिए।
मुझे याद है कि उस कार्यक्रम में शरीक एक महिला ने जब उनसे मजाक करते हुए कहा कि रिटायरमेंट के बाद तो आप आराम करेंगी। बेटे की शादी करवा कर फुर्सत से बहु से सेवा करवाएंगी! तब उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया था कि- “मेरे पास इतना समय कहाँ है! रिटायरमेंट के बाद बहुत सारे काम हैं जो मुझे करने हैं,अभी से उन कामों की लिस्ट बनाती जा रही हूँ।” लगभग दो वर्षो के बाद वे अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त होने वाली थीं।
वह मुलाकात उनसे मेरी अंतिम मुलाकात थी। कुछ दिनों बाद यह सूचना मिली कि वे गंभीर रूप से बीमार हैं, और एक निजी अस्पताल में भर्ती हैं। हम समझ नहीं पा रहे थे कि अचानक इतनी गंभीर हालत कैसे हो गयी! पिछली मुलाकात में ही वे इतनी उर्जा से भरी हुई दिखी थीं। पता चला कि अपनी नियमित जाँच के लिए वे खुद ही अपने बेटे के साथ अस्पताल गयी थीं। वहाँ जरूरी समझ कर डाक्टरों ने उन्हें भर्ती होने की सलाह दी। लगभग एक सप्ताह बाद उन्हें स्वस्थ मानकर अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। लेकिन एक-दो दिन बाद ही उनकी तबियत फिर से बिगड़ गयी। इस कारण से उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। हम उनसे मिलने अस्पताल गये। वे आई.सी.यू में थीं, इसलिए उन्हें देख भी नहीं पाए। उस दिन सिर्फ मोहन जी से मिलकर और हाल-चाल पूछ कर हम लौट आए। इसके बाद हम लगातार मोहन जी से हाल-चाल पूछते रहते थे। कभी उनकी हालत में सुधार की खबर आती तो कभी गिरावट की। मस्तिष्क में रक्त के थक्के जमने और शरीर के विभिन्न अंगों के क्रमशः काम नहीं कर पाने की सूचना डाक्टरों ने दी थी। एक सुविधा और साधन सम्पन्न अस्पताल के विशेषज्ञ डाक्टरों की पूरी टीम बेहतरी के लिए काम कर रही थी। माधुरी जी की जिजीविषा पर भी हमें भरोसा था। लेकिन लगभग दो महीने तक संघर्ष करते रहने के बाद 12 अक्टूबर 2016 को माधुरी जी इस दुनिया से विदा हो गयीं।
यह स्तब्ध करने वाला था। उनसे हुई आखिरी मुलाकात बार-बार याद आ रही थी। कहने को उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। एकदम नया-नया परिचय था जो एक जुड़ाव में बदल गया था। पारदर्शी रेप्रीजेटर में रखे उनके  पार्थिव शरीर के पास मैं दो-तीन घंटे तक बैठी रही। यह शायद रिक्तता की सत्यता और उसे स्वीकार न कर पाने की बीच की स्थिति थी, या यह शायद सच स्वीकारने की प्रक्रिया का हिस्सा था!!
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माधुरी जी के गुजर जाने के बाद मोहन जी से हमें उनके अप्रकाशित साहित्यिक अनुवाद कार्यों का पता चला। हम सभी की यह इच्छा थी कि उनके ये अनुवाद लोगों के बीच जाएँ। यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि रूसी भाषा के कथा साहित्य के उनके द्वारा किये गये लगभग दर्जन भर हिन्दी अनुवादों में से लेफ़ तल्सतोय की सात अनूदित कहानियों का संकलन इसी महीने (मई’2017) में प्रकाशित हो चुका है। इस संकलन की सातों कहानियों से इसके प्रकाशन के पूर्व ही गुजरने का मुझे अवसर मिला था। हालांकि अपने अनुवादों को दूसरी बार देख सकने का भी अवसर उन्हें ठीक से नहीं मिल सका फिर भी आश्चर्यजनक तौर पर इन अनुवादों में त्रुटियाँ नहीं के बराबर थीं। मोहन जी ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि अनुवाद से पहले किसी मूल रूसी कहानी को वे तब तक कई बार पढ़ती थीं, जब तक वह उन्हें आत्मसात न हो जाए। शायद यही कारण है कि उनके अनुवाद बहुत ही स्तरीय हैं। इन अनुवादों को पढ़ते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि हम अनूदित साहित्य पढ़ रहे हैं। लेफ़ तल्सतोय की जो सात अनूदित कहानियाँ इसमें संकलित हैं वे हैं : (1.) इंसान को कितनी जमीन चाहिए (2.) इंसान किस वज़ह से जिन्दा रहता है (3.) दो बुढ़ऊ (4.) तीन साधु (5.) ईश्वर देखते हैं किन्तु प्रतीक्षा करते हैं (6.) चिंगारी जो घर करो जला दे (7.) कॉकेशस का कैदी।

संभव है इनमें से कुछ कहानियाँ आपने पहले पढ़ी हों लेकिन माधुरी जी के अनुवाद की सजीवता इन्हें पहले के अनुवादों से अलग करती है। ये अनुवाद हमें मूल रूसी कहानियों के निकट ले जाते हैं। मुझे आशा है कि माधुरी जी अपने इस अनुवाद कार्य के माध्यम से हमेशा हिन्दी के पाठकों के बीच रहेंगी। प्रकाशित संकलन में यह सूचना है कि उनके कुछ महत्वपूर्ण मराठी साहित्यिक अनुवाद अभी तक अप्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है कि ये अनुवाद भी अपने प्रकाशन के बाद मराठी अनुवाद साहित्य को पर्याप्त समृद्ध करेंगे। 

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