इसे समझने के लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज के 7 मार्च 1984 को एशियन स्टडी ग्रुप के निमंत्रण पर
इस्लामाबाद के एक सम्मेलन में दिये वक्तव्य के कुछ हिस्सों को उद्दृत किया जा सकता
है। वे एफ्रो-एशिया लेखक संगठन के सक्रिय सदस्य थे। उन्हें इस संगठन की पत्रिका ‘Lotus’
के संपादन का अवसर भी मिला। उनके संपादन काल में ही पत्रिका का
कार्यालय मिस्र की राजधानी काहिरा से लेबनान की राजधानी बैरूत स्थानांतरित कर दिया गया था। यहाँ वे 1976 से
1982 तक रहे। इस दौरान चल रहे फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष में
उन्हें अपना रचनात्मक पक्ष तय करना था। फ़ैज़ के अनुसार – “यह
अजीब बात थी कि इजराइली जिन्हें नाज़ियों के हाथों कठोर यातना झेलनी पड़ी थी,
वे अब फिलिस्तीनियों को उसी प्रकार के कष्ट देने पर उतारू थे,
जबकि फिलिस्तीनियों ने इजराइलियों का कुछ नहीं बिगाड़ा था।”
इसी
वक्तव्य में आगे फिलिस्तीन के प्रति अपनी पक्षधरता का कारण स्पष्ट करते हुए
उन्होंने कहा था - “शक्तिशाली का साथ तो सब देते ही हैं, क्योंकि उसमें कोई हानि नहीं होती। कमज़ोर का साथ देने वाले कम होते हैं,
और उसमें केवल हानि ही होती है। मैंने बैरूत प्रवास के दिनों में
कमज़ोर का साथ देने को अपना रचनात्मक धर्म स्वीकार किया था।”
समय का
चक्र वाकई विचित्र होता है। जिन यहूदियों ने खुद भयानक अमानवीय यातनाएँ झेली और
संघर्ष किया वे इजराइल की स्थापना और अपने मजबूत होते जाने के साथ फिलिस्तीन के
प्रति नृशंस और आक्रामक होते चले गये। यह उचित ही है कि इतिहास की कई घटनाएँ हमें
यहूदियों के प्रति सहानुभूति से भर देती हैं। ठीक इन्हीं कारणों से वर्तमान में
फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए उन्हें समर्थन देना हमारा नैतिक
दायित्व है। फ़ैज ने ठीक ही कहा है कि हमें हमेशा उनके पक्ष में होना चाहिए जो
कमज़ोर हैं। यानी उनके पक्ष में जो पीड़ित हैं, जो अन्याय के
शिकार हैं।
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