पिछले दिनों हैदराबाद की ‘क’ से कविता नामक एक संस्था ने अपने वार्षिकोत्सव के मौके पर 06.08.2017 को हिन्दी कविता पर केन्द्रित एक बड़े आयोजन की घोषणा करते हुए, कार्यक्रम की संकल्पना, शर्तों और रूपरेखा से सम्बंधित कुछ सार्वजनिक पोस्ट जारी किए थे । ऐसे ही कुछ पोस्ट पर इस कार्यक्रम में प्रवेश के लिए रखी गयी भारी शुल्क की बाध्यता और बाद में छात्रों के लिए घोषित रियायती पास के साथ जोड़ी गयी अपमानजनक टिप्पणियों पर मैंने प्रतिक्रियायें देते हुए आपत्ति जतायी थी । इस आपत्ति ने हैदराबाद की ‘क’ से कविता टीम को इस तरह विचलित कर दिया कि मुझ पर प्रतिक्रियायों के माध्यम से खूब व्यक्तिगत हमले हुए । इसके बाद मैंने इस प्रसंग पर अपना मत और हो रहे विवाद को स्पष्ट करते हुए कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर कुल तीन स्वतंत्र फेसबुक पोस्ट लिखे । इन तीनों को एक साथ यहाँ ब्लॉग के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है । इन्हें लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी, परिणाम क्या हुआ जैसी सारी बातें, इन्हें क्रम से पढ़ते हुए स्पष्ट होती चली जाएँगी ।
[1]
‘क’ से कथित कविता प्रेमी
[31.07.2017/ 04:31 PM]
हिन्दी
कविता के नाम पर अतिथियों की लम्बी-चौड़ी सूची वाला एक वार्षिकोत्सव कार्यक्रम
आगामी 6 अगस्त 2017 को हैदराबाद में होने जा रहा है । इस कार्यक्रम की संयोजक
चूँकि मेरी परिचित हैं, इसलिए मुझे इस कार्यक्रम की
जानकारी मिल सकी । कार्यक्रम के पहले पोस्टर में दो सत्रों के इस कर्यक्रम में
प्रवेश शुल्क क्रमशः 600/- और 400/- रखा गया था । और एक शानदार ऑफर की तरह इस
कार्यक्रम के दोनों सत्रों में बैठने के लिए 800/- रूपये शुल्क की व्यवस्था रखी
गयी थी । चूँकि संयोजक ने व्यक्तिगत बातचीत में कई बार यह बताया है कि उनका प्रयास
मासिक गोष्ठियों से लेकर इस वार्षिकोत्सव तक यह है कि हिन्दी कविता लोकप्रिय हो और
युवाओं में इसके प्रति रुझान बढ़े । इसलिए मैंने प्रवेश के लिए शुल्क की
अनिवार्यता पर आश्चर्य व्यक्त किया । तेलंगाना जैसे अहिन्दी भाषी प्रदेश में
हिन्दी कविता के लिए कोई कार्यक्रम हो और इतने अधिक प्रवेश शुल्क के साथ उसमें
जाना तय किया गया हो तो जाहिर है कि इन कार्यक्रमों की पहुँच कुछ खास लोगों तक ही
संभव है ।
मेरी
इस प्रतिक्रिया के बाद संयोजक ने एक और पोस्टर जारी किया जिसमें विद्यार्थियों के
लिए 200/- रुपये के रियायती पास की व्यवस्था की सूचना थी । इस बार पोस्टर में यह
जोड़ दिया गया था कि मात्र 600/- और 800/- के डोनर पास वालों के लिए भोजनावकाश में
खाने की व्यवस्था रहेगी । विद्यार्थियों के लिए कहा गया था कि वे अपने आइडी कार्ड
के साथ आएँ, भोजन की व्यवस्था तो इनके लिए नहीं ही
होगी, लिखा यह गया था कि इनके लिए बैठने की जगह की भी गारंटी
नहीं ली जा सकती । विद्यार्थियों के प्रति यह नजरिया मुझे बहुत अपमानजनक लगा ।
मेरा मानना है कि इस तरह के कार्यक्रम में छात्रों-युवाओं की अधिक से अधिक
भागीदारी हो तो इस तरह के कार्यक्रम किसी वास्तविक उद्देश्य तक पहुँच पाते हैं ।
इस
आशय की मेरी प्रतिक्रिया के बाद संयोजक और उनकी पूरी टीम की तरफ से मुझ पर
व्यक्तिगत हमले होने शुरू हो गये । यह बहस बेहद अप्रिय स्थिति में तब जाकर खत्म
हुई,
जब संयोजक ने बेहद अपमानजनक कमेंट के साथ मुझे अनफ्रैंड कर दिया ।
संयोजक
का तर्क था कि आर्थिक पक्ष महत्वपूर्ण होता है । इससे भला कौन इंकार कर सकता है? चूँकि मैं जानती हूँ कि उनकी टीम में अच्छे ओहदे पर काम करने वाले बड़ी
आमदनी वाले बहुत सारे लोग हैं, इसलिए उनके सुझाव मांगने पर
मैंने यह कहा कि ऐसे सक्षम लोग आपस में कांट्रिब्यूट कर सकते हैं । बाहर के लोगों
से भी सहयोग की अपील कर सकते हैं, लेकिन टिकट की बाध्यता
नहीं होनी चाहिए । इसके बाद संयोजक का यह तर्क था कि उनके पास सीट बहुत कम हैं,
इसलिए भी उन्हें ऐसी व्यवस्था करनी पड़ रही है । यह भी एक बनावटी
समस्या है ।
संयोजक
का शुरू से यह विचार रहा है कि वे वार्षिकोत्सव ही नहीं मासिक कार्यक्रम भी ऐसी
जगहों पर करें जो अपनी प्रकृति में सभ्रांत हों । जहाँ चाय समोसे तक कई गुना दामों
पर बिकते हों । मैंने उनके इस नजरिये को शुरू से गलत कहा है और उन्हें यह बताती
रहूँ कि हिन्दी कविता की मूलभूत विशेषता उसकी जनवादिता है । इससे जुड़े किसी भी
कार्यक्रम में इलिटिज्म की यदि बू भी आए तो यह दुखद है । हैदराबाद विश्वविद्यालय
में मामूली खर्चे पर इतना बड़ा हॉल मिल जाता है कि बैठने वालों की बड़ी से बड़ी
तादाद भी अक्सर उसे नहीं भर पाती । संयोजक का मानना है कि उन्हें अपनी एप्रोच के
कारण विश्वविद्यालय के हॉल तो मिल सकते हैं, लेकिन इससे
ऐसा लगता है जैसे यह विश्वविद्यालय का कार्यक्रम हो, उनके
बैनर का नहीं! यह अजीबोगरीब तर्क है । दरअसल यहीं उन्हें श्रोताओं का एक बड़ा युवा
वर्ग भी मिल सकता है । लेकिन यहाँ वह चमक-दमक नहीं मिल सकती जो किसी रेस्टोरेंट,
कैफे या आर्ट गैलरी में मिलती है । छद्म यह है कि संयोजक अपनी
एप्रोच से अतिथियों को ठहराने के लिए विश्वविद्यालय के गेस्टहाउस तो बुक करवाने का
भरपूर प्रयास कर रही हैं, लेकिन कम जगह का रोना रोते हुए भी
वे विश्वविद्यालय की भारी क्षमता वाले ऑडिटोरियम का उपयोग करना नहीं चाहती!
हिन्दी
कविता के नाम पर बहुत कुछ चलता है । आगामी आयोजन हैदराबाद में होने जा रहा है ।
बिना भेदभाव के जनवादी तेवर लिए सम्पन्न लोगों के इस कार्यक्रम में वैसे तो बहुत
सारे स्टारनुमा लोग आ रहे हैं, लेकिन आपको खुशी होगी
जनपक्षधरता के बड़े पैरोकार कवि मंगलेश डबराल, हैदराबाद के
हिन्दी कवि आलोचक नंदकिशोर आचार्य, ब्लॉगर प्राध्यापक अरुण
देव और प्रेम गिलहरी दिल अखरोट वाली लोकप्रिय कवयित्री बाबुषा कोहली भी यहाँ पहुँच
रही हैं । जैसा कि बताया गया है, ये सभी अपनी नहीं अपने पसंद
के कवियों की कविताएँ सुनाएँगे और यदि समय मिला तो उनपर चर्चा भी करें शायद! पैसे
खर्च करने वाले लोग इन्हें बैठकर सुनेंगे और इनके साथ भोजन का भी लुत्फ़ ले पायेंगे
। दो सौ रुपये के रियायती पास वाले छात्र इन्हें खड़े होकर सुन पायेंगे, खाना खाते हुए देख पायेंगे और यदि जगह मिल सकी तो थोड़ी-थोड़ी देर के लिए
बैठ भी जाएँगे । लेकिन एक विपन्न कविता प्रेमी जो 200/- रुपये भी नहीं जुटा पाएगा
वे इन कवियों के मुख से निकलने वाली कविताओं के महायज्ञ में शामिल होने से वंचित
रह जायेगा । कोई बात नहीं कवियों की स्टार छवि के बने रहने के लिए इतना तो आवश्यक
होता है!!
[2]
हिन्दी कूल हो रही है!
[02.08.2017/ 07:56 PM]
‘क’ से कथित कविता प्रेमियों के 6 अगस्त 2017 को
हैदराबाद में आयोजित होने जा रहे आगामी कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा सामने आ चुकी है
। आप भी नज़रे-इनायत करें । इस पोस्टर के नीचे लिखे निर्देशों को भी ग़ौर से पढ़ें
। इनके कार्यक्रम की पहली ही परिचर्चा ‘हिंदी साहित्य से
युवाओं को कैसे जोड़ें’ विषय पर प्रस्तावित है । ज़ाहिर तौर पर
ये वो युवा नहीं हो सकते जो अधिक पैसा नहीं खर्च कर सकने के कारण 200/- के रियायती
पास पर जायेंगे, और जिनको बैठने की जगह तक देने की गारंटी
आयोजकों ने नहीं ली है । ज़ाहिर तौर पर ये वो युवा भी नहीं होंगे जो 200/- भी नहीं
जुटा सकने के कारण इस कार्यक्रम में शरीक ही नहीं हो पाएंगे!
इनकी
चिंता के दायरे में इन्हीं के वे युवा बच्चे होंगे, जिनसे
अपने ही हीनता बोध के कारण इन लोगों ने उनकी मातृभाषाएं और हिंदी तक छीन ली! और अब
वे उन्हें उनकी मातृभाषाएं या हिंदी लौटाना नहीं चाहते, बल्कि
ये चाहते हैं कि उनके बच्चों की अंग्रेजी में थोड़ा लोच आये कि उसमें हिंदी कविता
की भी छोंक पड़े!
इन्हीं
के शब्दों में इसके लिए वे बहुत सारे हथकंडों का इस्तेमाल कर रहे हैं । इनका आदर्श
वाक्य है कि ‘जो दिखता है वही बिकता है’ और ‘जो बिकता है वही उपयोगी और अनुकरणीय है’ यही उन्होंने अपने बच्चों को सिखाया है । इसलिए भी उन्हें हिन्दी कवियों
के मुख से निकलने वाली कविताओं को बिकते हुए दिखाने और उससे पूर्व विज्ञापित करने
का भ्रमजाल रचना पड़ रहा है!
वैसे
क्या पता कि युवाओं को साहित्य से जोड़ने की इस परिचर्चा में बातें उन्हीं युवाओं
की की जाएँ जिन्हें अपमानित करने में आयोजकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, इन्हीं छद्मों से तो पूरा हिंदी संसार भरा पड़ा है! इसी तरह तो हिन्दी ‘कूल’ हो रही है!
हिन्दी
के इस ‘कूल’ होने के आयोजन में मंगलेश, बाबुषा, अरुण देव, आचार्य
नंदकिशोर आदि खुद के मंहगे टिकटों में परिणत हो जाने की सच्चाई को जानते हुए भी,
बिना विचलित हुए, अपना बहुमूल्य योगदान देने
पहुँच रहे हैं!
[3]
इति 'क' से कथित कविताप्रेमी प्रसंग
[14.08.2017/ 01:36 PM]
कथित
कविता प्रेमियों के द्वारा बीते 6 अगस्त को हैदराबाद में आयोजित किये गये
वार्षिकोत्सव कार्यक्रम से पहले, इसके छद्म को उजागर करते
हुए, मैंने दो फेसबुक पोस्ट लिखे थे । मंहगे टिकट से प्रवेश
का मसला तो था ही, उससे भी अधिक दुखद यह था कि छात्रों के
लिए बाद में जो 200/- रुपये के रियायती पास की व्यवस्था की गयी थी, उसके साथ अपमानजनक शर्तें रखे गयी थीं । कार्यक्रम की संयोजक के इस तरह की
सूचना देने वाले एक पोस्ट पर इस सम्बंध में आपत्ति जताने के बाद मुझे फेसबुक पर ‘क” से कविता, हैदराबाद टीम के
सदस्यों के जो व्यक्तिगत हमले झेलने पड़े थे, उसे मैं बहुत
तवज्जो नहीं देना चाहती ।
इस
बहस के ठीक बाद इस टीम के सदस्यों ने अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में ये वक्तव्य
दिये कि उन्हें लोगों के प्रतिरोध का सामना ज़रूर करना पड़ रहा है, लेकिन इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, वे टिकट के
बिना किसी को भी प्रवेश नहीं देने के लिए कटिबद्ध हैं, और इस
पर वो गर्व महसूस करते हैं । बकौल संयोजक : “It is a proud moment as this
‘Ka’ Se..Kavita’ session will be their first paid event. We faced a lot of
resistance but we were determined to sell tickets. Because literature has to be
sold to be read, nobody reads free literature.”
मुझे
नहीं पता कि इसके बाद क्या हुआ, किस तरह की आंतरिक बहसे
हुईं, लेकिन मुझे यह जानकारी मिली है, कि
आयोजकों को कार्यक्रम के ठीक एक-दो दिन पहले टिकट खरीद कर प्रवेश की प्रस्तावित
व्यवस्था को रद्द करना पड़ा । लेकिन यह काम इस कदर चुपचाप किया गया कि लोगों तक
इसकी खबर ठीक से पहुँची ही नहीं । बल्कि यह कहना चाहिए कि इस खबर को लोगों तक
पहुँचने ही नहीं दिया गया । चूँकि इस विषय पर पहले पर्याप्त बहस हो चुकी थी,
इसलिए होना यह चाहिए था कि इस विषय में एक स्पष्टीकरण दिया जाता ।
इस
तरह यह कार्यक्रम तो सम्पन्न हो गया, लेकिन
कार्यक्रम की संयोजक और उनके निकट सहयोगियों के लिए यह बहुत ही भारी मन से लिया
गया फैसला रहा । एक तो उनके अहं का सवाल था और दूसरी महत्वपूर्ण बात ये रही होगी
कि टिकट की व्यवस्था खत्म करने पर उन्हें कांट्रिब्यूट करना पड़ा होगा, जिसके लिए वे कतई तैयार नहीं थे । संयोजक ने मंच से इस विषय में अपनी
खिन्नता का तो इज़हार किया ही, साथ ही यह भी कहा कि ‘यदि ऐसे ही हालात रहे तो यह कार्यक्रम पहला ही नहीं, शायद आखिरी कार्यक्रम हो ।’
मैं
यह नहीं मानती कि मेरी आपत्तियों की वजह से ही उन्हें टिकट के साथ ही छात्रों के
लिए की गयी अपमानजनक टिप्पणियों को हटाने के लिए विवश होना पड़ा । मैं यह मानती
हूँ कि इस फैसले के लिए मजबूर करने वाला यदि कुछ था, तो
वह स्वयं हिन्दी कविता का अपना जनवादी चरित्र था । हिन्दी कविता के इस चरित्र से
परिचित हुए बिना, इससे प्रेम करने का दावा करना खोखलेपन के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।
टिकट
की बाध्यता के खत्म किये जाने को यदि संयोजक चाहती तो एक विवेकपूर्ण और जरूरी
फैसले की तरह प्रस्तुत कर सकती थीं । लेकिन न जाने क्यों यह उन्हें अपनी पराजय की
तरह लग रहा है । इससे वह उबर ही नहीं पा रही हैं । वे मुझ पर अब तक सांकेतिक
व्यक्तिगत हमले करने में जुटी हुई हैं । कभी वे कार्यक्रम में आए अतिथियों के
वक्तव्य को अमृत और उसके बरक्स मुझे बिल से निकले सांप की संज्ञा देती हैं, तो कभी सिनेमा कम देखने तो, कभी मुफ्त की लालसा से
बचने की सलाह देती हैं । अनफ्रैंड करके उन्हें यह सुविधा तो मिल ही चुकी है कि
निश्चिंत होकर वे कुछ भी लिखें । खैर यह हक़ उन्हें है, वे
इस तरह यदि शांति का अनुभव करती हों तो करें, लेकिन मेरे
बहाने गरीबों और छात्र समुदाय का तो बार बार मज़ाक न उड़ाएँ । एक नाटक देखने जाने
की अपील करने के साथ ही उन्होंने जो लक्ष्य साधे हैं, उन्हें
उन्हीं के शब्दों में देखिये -
“भाइयों और बहनों टिकेट लेना पडेगा सोच लो ..भैया ! सब मेहनत करते हैं और
आगे भी करते रहना है तो टिकेट तो बनता है... वैसे आप किसी गरीब दुखिया के लिए दुखी
हैं कि वो ऐसे टिकेट वाले कार्यक्रम कैसे देखें तो कुछ उनकी तरफ से बुक करवा लें
.. धर्म का काम है साहित्य और संस्कृति में पैसे लगाना ....हम जो सिनेमा देखते हैं
, खुद एक आध कम देख लें और विद्यार्थियों और गरीबों को टिकेट
उपलब्ध करवाएं ऐसी रचनात्मक कला के दर्शन के लिए ...बस सब कुछ मुफ्त में पाने की
इक्षा से बचें :)”
मैं
तो यही कहूँगी कि धन का ही नहीं किसी भी तरह का अहंकार अच्छा नहीं होता । इस
अहंकार में किसी का मज़ाक उड़ाना तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण है । इससे बाहर आ जाना
ही बेहतर है । हिन्दी कविता से प्रेम करने का दावा करने वाले लोगों को हिन्दी
कविता की परंपरा की थोड़ी-बहुत जानकारी तो अवश्य रखनी चाहिए । बहुत संघर्षों से यह
परंपरा विकसित हुई है । हिन्दी के कई महान कवियों ने हिन्दी कविता के स्वाभिमान की
खातिर अपने स्वार्थ को बेरहमी से ठोकर मार दी । इस कविता की मुख्यधारा हमेशा
निरंकुश सत्ता और पूँजीवादी सोच और अभियानों के विरूद्ध रही है । इस कविता की
परंपरा में ही वह ताक़त है कि आप इसे अभिजात्य बनाना भी चाहें, तो भी नहीं बना सकते । मुझे दोष देने से बेहतर है कि अपनी गलती सुधारे
जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करें ।
वैसे
जो करना हों करें । जिस बहस में मैं पड़ी थी, उसके बाद आए
सकारात्मक परिणाम, मेरी अपेक्षा से कहीं अधिक हैं । इसके लिए
मुझे जो भी व्यक्तिगत हमले सहने पड़े, सहने पड़ रहे हैं या
सहने पड़ेंगे वे तो बहुत छोटी चीज हैं!
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