Sunday, 13 August 2017

विश्वास बचाए रखने की आवश्यकता

समाज ही नहीं सोशल मीडिया पर भी पारस्परिक संवेदनहीनता पर चिंता जताई जाती है । यह सच भी है । किसी सोशल कनेक्टिंग साइट पर कोई बहुत निराश दिखे, अवसाद के लक्षण दिखाई दें तब भी मित्र और परिचित गंभीर होने के बजाय इस पर मज़ाकिया रुख अख्तियार करते हुए दिखाई देते हैं । कई बार तो इसके बहुत गंभीर परिणाम देखने को मिले हैं ।
कोई अपने फेसबुक पोस्ट में बहुत परेशान, अवसाद ग्रस्त, बहुत बीमार या किसी संकट में दिखाई दे तो हमें क्या करना चाहिए?
कल इसी तरह के एक पब्लिक पोस्ट पर मेरी निगाह गयी । विवरण गंभीर स्वास्थ्य खतरों के थे, डाक्टरी चेतावनी थी और लिखने वाले ने इसे न मानते हुए अपनी ज़िद का भी ज़िक्र किया था । पोस्ट मेरे किसी फेसबुक फ्रैंड की नहीं थी, लेकिन हम दोनो के कुछ कॉमन फ्रैंड्स थे । क्या करुं क्या नहीं करुं की बड़ी जद्दोजहद के बाद मैंने एक कॉमन फ्रैंड (जो उसकी परीचित भी है) को मेसेज कर उसके आराम और देखभाल को सुनिश्चित करने का आग्रह किया । अपरिचय की परवाह नहीं करते हुए स्वास्थ्य खतरों के विवरण वाले उस पोस्ट पर भी मैंने इसी आशय का एक कमेंट किया । मुझे जो रिस्पांस और उपेक्षा मिली उससे अचंभित और दुखी हूँ !
 कई बार हम जानबूझ कर कठोर और संवेदनहीन इसलिए दिखते हैं, क्योंकि भावुकता और संवेदनशीलता के अपमान के कई कटु अनुभव हमारे हिस्से में दर्ज होते हैं । समाज या सोशल मीडिया पर हम जो आत्मीयता और संवेदनशीलता के अभाव की बात करते हैं, वह वास्तव में एकतरफा मामला नहीं है ।
खैर ऐसे अनुभवों से गुज़र कर मैं चरवाहा लड़के के भेड़िया आया भेड़िया आया वाले झूठ वाली कहानी को याद नहीं करना चाहती । ऐसे समय में मुझे सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' को याद करना अच्छा लगता है । इस कहानी में अपनी संवेदनशीलता और भावुकता के कारण छले जाने और बहुत आहत होने के बावजूद बाबा भारती की चिंता यह होती है कि, इस घटना की चर्चा सुनकर लोगों का बीमार और ज़रूरतमंद लोगों से विश्वास खत्म न हो जाए । बार-बार छले जाने के बावजूद इस विश्वास को बचाए रखने की आवश्यकता है ।

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