शैलेन्द्र, राजकपूर के चहेते गीतकार थे । मेरे खयाल से इसका एक कारण राजकपूर और
शैलेन्द्र के बीच का वैचारिक साम्य भी था । तब राजकपूर भी सिनेमा की दुनिया में नये
ही थे । जवान खून था और वामपंथी संगठनों विशेषकर इप्टा और प्रलेस की काव्य
गोष्ठियों में अक्सर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ जाया करते थे । वहीं उन्होंने
पहली बार शैलेन्द्र को सुना था । वहाँ शैलेन्द्र पूरे जोश के साथ “मेरी बगिया में आग लगाये गयो रे गोरा परदेसी” गा रहे
थे । राजकपूर इसे सुनकर, इतने प्रभावित हो गये थे कि उन्होने
अपनी फ़िल्म ‘आग’ के लिए गीत लिखने का
प्रस्ताव शैलेन्द्र के समक्ष रख दिया ।
तब
शैलेन्द्र ने फिल्मों के लिए गीत लिखने से साफ़ इनकार कर दिया था । राजकपूर ने यह
कहते हुए उनसे विदा ली कि वे जब भी फिल्मों में लिखने के लिए मन बना पाएँ, राजकपूर उनका स्वागत करने के लिए तैयार मिलेंगे । कुछ दिनों बाद आर्थिक
दिक्कतों के कारण शैलेन्द्र को फिल्मों में गीत लिखने का मन बनाना पड़ा और राजकपूर
ने अपने किये वादे को निभाते हुए उनका स्वागत किया । यहीं से सिलसिला शुरू हुआ एक
कवि के सिनेमा के गीतकार बनने का ।
सबसे
पहला गीत जो शैलेन्द्र ने सिनेमा के लिए लिखा, वह था फ़िल्म
‘बरसात ’ का – ‘हमसे
मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम बरसात में ।’ पहले ही गीत से शैलेन्द्र ने सिनेमा जगत में अपनी पहचान बना ली । यह गीत
बेहद लोकप्रिय हुआ और इसकी सबसे बड़ी खासियत यह रही कि इसे हिंदी फ़िल्मों का सबसे
पहला ‘टाइटल गीत’ होने का श्रेय
प्राप्त है, इससे पूर्व फ़िल्मों में टाइटल गीत की परंपरा
नहीं थी । इसी गीत के साथ यह परंपरा शुरू हुई, जो आज तक
बदस्तूर जारी है ।
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