Sunday, 1 October 2017

अग्रेज़ियत का एक प्रसंग

कुछ महीने पहले की बात है, हमारे पड़ोस के एक विश्वविद्यालय (मौलाना आज़ाद उर्दू विश्वविद्यालय) में आयोजित किसी सेमिनार में हिस्सा लेने अमेरिका की नॉर्थ केरोलिना यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाने वाले जॉन शील्ड काल्डवेल भी आये थे। समय निकाल कर वे हमारे हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों से भी बातचीत करने आए। हिन्दी के एक विदेशी प्रोफेसर को सुनने की जिज्ञासा लिए जमा हुए विद्यार्थियों के लिए निर्धारित कमरा छोटा पड़ गया था। मैं थोड़ी देर से पहुँची थी और दरवाजे के बाहर से ही खड़ी होकर उन्हें सुन रही थी।
अमेरिका में हिंदी पढ़ाने के अनुभव और समस्याओं पर बात करने के बाद प्रश्नोत्तर का सिलसिला शुरू हुआ। इसी क्रम में प्रो. काल्डवेल ने यह जानना चाहा कि अगर आप अमेरिकी बच्चों की हिंदी पढ़ाने की कक्षा में जाएँगे, तो वहां आप उन्हें अभिवादन के लिए क्या कहेंगे और थैंक्यू के लिए क्या कहेंगे? कुछ देर के लिए कमरे में चुप्पी रही लेकिन तभी कुर्सी पर बैठे एक शोधार्थी ने उठकर कहा सर हम उन्हें हेलोकहेंगे ! और थैंक्यूके लिए शुक्रियाकहेंगे। प्रो. काल्डवेल ने कहा कि आप भारतीय फ़ोन पर बातचीत करते हुए तो हेलोको अपना ही चुके हैं, लेकिन क्या हिन्दी सिखाने की कक्षा में भी अभिवादन के लिए हेलोही कहेंगे! शोधार्थी ने उत्तर दिया कि हेलोएक तरह से अंतर्राष्ट्रीय शब्द है, और इसे पूरी दुनिया में हर कोई समझता है। मैंने दरवाजे के बाहर से ही इस तरह बोलने की कोशिश की कि आवाज उन तक पहुँच सके। मैंने कहा- सर, अभिवादन के लिए हम उन्हें नमस्तेकहेंगे और थैंक्यू के लिए धन्यवादया शुक्रियाकुछ भी! उन्होंने इस ज़वाब पर संतोष व्यक्त किया।
मैं सोचती हूँ कि उस दिन संभवतः प्रो. काल्डवेल के अनुभव में एक नयी बात यह जुड़ी होगी कि भारतीय छात्र अभिवादन के लिए भी अपनी भाषा के शब्दों को असमर्थ मानने लगे हैं। बहुत संभव है कि अपने इस अनुभव का ज़िक्र वे कई जगह करेंगे! मेरे लिए अधिक चिंता का विषय यह है कि जिस शोधार्थी ने उन्हें ऐसा कहा वह अपेक्षाकृत सजग और प्रबुद्ध शोधार्थियों में गिना जाता है, और उसी ने बाद में बताया कि उसने जो कुछ कहा वह अनायास नहीं था, उसके लगातार चिंतन मनन और अनुभव का निचोड़ था!
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