मैं
करीब सात-आठ साल की रही होउंगी जब पहली बार टीवी पर ‘उमराव जान’ देखी थी। तब समझ
में तो क्या ही आया होगा, लेकिन तब की देखी उस फिल्म की धुंधली स्मृतियाँ आज भी
दिमाग में कहीं दर्ज हैं। करुणा की जिस पराकाष्ठा को इस फिल्म में उभारा गया है,
उसने उस छोटी सी उम्र में भी मुझे प्रभावित बेहद किया होगा, और शायद इसीलिए आजतक
मैंने जितनी भी बार उमराव जान देखी है, हर बार ऐसा लगता है, जैसे कभी अधूरी छूट
गयी फिल्म को पूरा देखने बैठी हूँ!
एक
तमिल भाषी लड़की जिसने हिंदी भी बेहद प्रयासों के बाद बोलनी सीखी, उसने इस फिल्म में
उर्दू बोली है, और न सिर्फ बोली है, बल्कि उसके लखनवी लहज़े और भंगिमाओं को हुबहू
उतार पाने में पूरी तरह सफल रही हैं। हिंदी सिनेमा के पास गर्व करने के लिए जो
चुनिन्दा फ़िल्में हैं, उनमें ‘उमराव जान’ का नाम भी लिया जाता है। इस फिल्म के
निर्देशक मुज्ज़फर अली ने हालांकि कई और फ़िल्में बनाई, लेकिन ‘उमराव जान’ जैसी
फिल्म वे दुबारा कभी नहीं बना सके। ऐसा लगता है मानो उन्होंने अपनी सारी निर्देशन
कला इसी फिल्म में झोंक दी हो।
यह
फिल्म मुझे इसलिए भी बेहद पसंद है, क्योंकि ये साहित्यिक कृति पर बनी है। उमराव
जान’ किसी लेखक की कल्पना का पात्र* है, ये लगता ही नहीं है । हमेशा यही महसूस होता
है कि किसी ज़माने में एक उमराव जान रही होगी, उसी की कहानी लेखक ने लिखी है। हिंदी सिनेमा में बहुत कम फ़िल्में ही ऐसी हैं
जो साहित्यिक कृति को बखूबी सिनेमा में उतार सकी हैं। ‘उमराव जान’ इसमें भी एक कदम
आगे हैं, क्योंकि ये फिल्म मिर्ज़ा हदी रुसवा के ‘उमराव जान अदा’ उपन्यास से भी कहीं
अधिक प्रभावी है।
इस
फिल्म का गीत-संगीत आज भी लोग उसी शिद्दत से सुनते हैं। ख़य्याम ने इस फिल्म के लिए
संगीत दिया था। वे रेखा से इस कदर प्रभावित हैं, कि कहते हैं ‘अगर किसी को उमराव
जान को देखना हो तो, वो रेखा को देख ले, क्यूंकि यही उमराव जान हैं’। शहरयार के
लिखे गीत और ख़य्याम के संगीत ने इस फिल्म को सम्पूर्ण बनाने में बड़ी भूमिका निभाई
है। इस फिल्म में अमीर खुसरो के लिखे ‘काहे को ब्याहे बिदेस’ गीत का भी बहुत
सार्थक उपयोग किया गया है।
रेखा
बेहद ईमानदारी के साथ अपने साक्षात्कारों में ये कहती हैं कि, मैं अपनी निजी
ज़िन्दगी में जिस समय जैसे हालातों से गुज़र रही होती हूँ, उसका रिफ्लेक्शन उस समय
मेरे निभाए जा रहे किरदारों पर भी पड़ता है। वे बताती हैं कि जिस समय वो ‘उमराव
जान’ कर रही थीं, उस समय शायद वे अपने निजी
जीवन में कुछ ऐसे ही मिलते-जुलते अनुभवों से गुजर रही थीं, जिनसे उमराव गुजरती हैं।
‘उमराव जान’ में जान फूँक देने वाली रेखा ने कई अन्य फिल्मों में भी किरदारों की विविधता को उम्दा अदायगी से जीवंत बना कर हिन्दी सिनेमा को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण
योगदान दिया है।
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[*कई लोग इस बात से मतांतर रखते
हैं कि उमराव जान एक काल्पनिक पात्र है। इसकी वास्तविकता को लेकर उनके अपने तर्क
भी होते हैं। इस लिहाज से उमराव जान की काल्पनिकता या वास्तविकता बहस का विषय हो
सकती है, लेकिन अवध के इतिहास, संस्कृति और समाज के जानकार विद्वानों ने प्रायः अपनी
किताबों और लेखों में उमराव जान को एक काल्पनिक पात्र ही माना है।]
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