अगस्त
2014 में जब मैंने यह ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तब एक तरह से ब्लॉग का ज़माना जा
चुका था। वह 21वीं सदी का पहला दशक था, जब हिंदी लेखकों और पाठकों के लिए ब्लॉग की
दुनिया तेज़ी से खुलने लगी थी और ब्लॉग बहसों, संवाद, विमर्शों और अभिव्यक्ति का
महत्वपूर्ण माध्यम बन गए थे। उस दशक तक तो मेरा इन्टरनेट से ठीक से परिचय भी नहीं हुआ
था। अपने एम.ए के दिनों तक मेरे पास जो फ़ोन था वो सिर्फ कॉल सुनने, कॉल करने के
काम आता था। मेरे घर में पहला कंप्यूटर 2011 में आया, तब मैं एम.ए अंतिम वर्ष में
थी और लगभग उन्हीं दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के कंप्यूटर सेंटर में इन्टरनेट
का उपयोग करना भी सीख रही थी। यानि कुल मिलाकर मेरी इन्टरनेट के साथ जो संगति है,
वह पिछले मात्र पाँच-छ: सालों की है। 2013 में हैदराबाद विश्वविद्यालय आने के बाद
यह संगति अधिक प्रगाढ़ हुई। ज़रूरत पड़ने पर यहाँ मैंने अपने लिए एक लैपटॉप भी खरीदा
और विश्वविद्यालय की ओर से असीमित इन्टरनेट की सुविधा भी मिल रही थी।
जिस
दौर में मैंने लिखना शुरू किया वह ब्लॉग के उतार का युग था या नहीं इससे कोई बहुत
ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मुझ जैसे नये लेखकों के लिए यह बड़ी बात थी कि हमें
किसी शब्द संख्या में बंधें बिना अपनी मर्ज़ी से इन्टरनेट पर लिखने का स्पेस मिल
रहा था और वह भी बिना कोई शुल्क दिए! सबसे बड़ी बात यह थी कि मुझे जो लिखना था उसे
सार्वजनिक करने के लिए मुझे किसी पत्रिका और उसे चलाने वालों के अहंकार से दो-चार
होने की ज़रूरत नहीं थी। यानी कि मैं जो लिख रही थी उसके सार्वजनिक होने में महज़ एक
क्लिक का फासला था। मेरी लिखी हुई चीज़ों तक लोग गूगल सर्च करके पहुँच सकते थे। जिस
इन्टरनेट की दुनिया का उपयोग मैं जानकारी हासिल करने के लिए कर रही थी, उस दुनिया
को बहुत नगण्य ही सही मैं अपना थोड़ा-बहुत योगदान दे सकने की स्थिति में भी थी।
मैंने
इस ब्लॉग के माध्यम से कोई महत्वपूर्ण काम किया हो ऐसा नहीं है, लेकिन इसने मेरे
लेखन को प्रोत्साहित किया और अपने ब्लॉग के नाम और अपने घोषित एजेंडे के अनुरूप मैंने
जब जो उचित समझा, जो मन ने कहा वह सब यहाँ लिखा। इसलिए मेरे ब्लॉग में कई लेख आकार
में बहुत छोटे तो कुछ बहुत बड़े भी हैं। इसी तरह लेखों की प्रकृति में भी विभिन्नता
रही है। सिनेमा में रूचि रखने और सिनेमा का शोधार्थी होने के नाते सिनेमा पर और इसी
तरह स्त्री होने के नाते स्त्रियों से सम्बद्ध विषयों पर बेशक मैंने अधिक लिखा है,
लेकिन इसके अलावा मुझे जब जिस किसी विषय पर लिखने की ज़रूरत महसूस हुई है, मैंने
बेझिझक लिखा है।
ब्लॉग
लेखन शुरू करना उत्साहजनक था, लेकिन लिखा हुआ पाठकों तक पहुँचे यह आवश्यक था।
इसमें फेसबुक से बड़ी सहायता मिली, जहाँ मैं अपने लिखे हुए लेख के कुछ अंश सहित
ब्लॉग लिंक शेयर करती थी और इससे हर लेख को फ्रेंडलिस्ट से पाठक मिलते रहते थे। यह
सिलसिला अब भी जारी है। मेरा खयाल है कि फेसबुक के माध्यम से ही लोगों ने जाना की
‘जो मन में आया’ नामक ब्लॉग भी मेरे लेखन का एक ठिकाना है। कई व्यावहारिक कारणों
से मैंने अपनी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट बहुत हद तक सीमित रखी है। मैं मानती हूँ कि
फ्रेंडलिस्ट में शामिल लोगों की संख्या से अधिक महत्वपूर्ण है, उसमें कम संख्या
में ही सही संजीदा और संवेदनशील लोग हों।
हालांकि
ऐसा नहीं है कि मेरे ब्लॉग को लेकर फेसबुक पर मुझे बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया
मिलती रही हो। मेरे आम फेसबुक पोस्ट की तुलना में ब्लॉग पोस्ट को शेयर करने पर
मिलने वाली प्रतिक्रियाएँ परिमाण में बहुत कम होती हैं, लेकिन फिर भी यह इतनी
प्रभावी ज़रूर होती हैं कि मुझे लिखते रहने की उर्जा मिलती रहे। मेरे कई ब्लॉग
पोस्ट तो कई बार फेसबुक पर मेरे किसी विषय पर लिखे हुए पोस्ट का संशोधित परिवर्धित
रूप ही होते हैं, और निश्चित रूप से इसमें वहाँ मिली प्रतिक्रियायों की भी भूमिका
होती है।
तारीफ़
ही नहीं आलोचना भी सिखाती है, और मैं इन दोनों को ही बहुत महत्वपूर्ण मानती हूँ। इसको
लेकर मैं पर्याप्त गंभीर रही हूँ और इसलिए अपनी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में ऐसे लोगों
को शामिल नहीं रखना चाहती जो फेसबुक पर सक्रिय रहते हुए भी लम्बे समय तक मेरे
प्रति सायास उदासीनता बरतते हुए नज़र आते हों। मैंने अपना यह विचार कभी छुपाया भी
नहीं है, इसके बावजूद फ्रेंडलिस्ट रिवाईज़ करते रहने के कारण कई लोगों ने मन ही मन
मुझे अपना शत्रु समझ लिया, जबकि ऐसा मानना अनावश्यक है। असल में मेरे लिए यह एक
सैद्धांतिक और ज़रूरी व्यावहारिक मसला है।
ब्लॉग
लेखन शुरू करने के बाद ही मेरे लिए अपना लिखा हुआ लोगों तक पहुंचाने के अन्य कई
माध्यम भी खुले। ओम थानवी के सम्पादन काल तक ‘जनसत्ता’ में ब्लॉग लेखकों के लिए एक
कॉलम हुआ करता था, जिसमें कई बार मेरे लेख प्रकाशित हुए और उससे भी ब्लॉग में
अभिरुचि रखने वाले कई लोगों ने जाना कि मैं नियमित ब्लॉग लिखती हूँ और उनमें से कई
लोग गूगल प्लस के माध्यम से मेरे ब्लॉग से जुड़े। बाद के दिनों में मुझे कुछ अन्य
इन्टरनेट प्लेटफॉर्म्स पर भी अपने लिखे हुए को साझा करने का मौका मिला, जिसमें
‘स्त्रीकाल’ और ‘यूथ की आवाज़’ उल्लेखनीय हैं।
लगभग
साढ़े तीन साल बाद 2017 के एकदम अंत में अपना यह 100वां पोस्ट करते हुए मुझे बहुत
ख़ुशी हो रही है। जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तब खुद भी यह उम्मीद नहीं थी कि
नियमित लिखती रह पाऊँगी। चाहती हूँ कि आगे भी लिखती रहूँ। लेखन आजीविका का भी साधन
बन जाए तो बहुत अच्छा है, लेकिन जब तक ऐसा न हो तब तक, यह भी कम बड़ा सुख नहीं है
कि अपना लिखा हुआ उन लोगों तक पहुँचे जिनके लिए हम लिख रहे हैं। जिन लोगों ने
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष प्रतिक्रियायों से उत्साह बढ़ाया, जिन लोगों ने ज़रूरी आलोचना
की उन सब का बहुत शुक्रिया। यह आत्मीय सहयोग आगे भी बनाये रखें और मेरे लिए यह
कामना करें कि मैं अनवरत लिखती रह सकूँ। मैं अभी अपनी थोड़ी-बहुत सार्थकता यदि कहीं
महसूस कर पाती हूँ, तो वह मेरे लिखने-पढ़ने में ही है। समस्त पाठकों और मित्रों का ह्रदय
से आभार।
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