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दुष्यंत
कुमार (01.09.1933 से 30.12.1975)
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फिल्म
‘मसान’ में दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल की कुछ पंक्तियों
के साथ प्रयोग करके जब वरुण ग्रोवर ने एक सुन्दर गीत बनाया, तब स्वाभाविक रूप से
इस गीत के साथ जगह-जगह दुष्यंत कुमार का ज़िक्र भी हुआ। हो सकता है कि बिल्कुल नयी
पीढ़ी के कई लोगों को इससे यह जानने का अवसर मिला हो कि ‘एक जंगल है तेरी आँखों
में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ / तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ’ जैसी खूबसूरत
पंक्तियाँ दुष्यंत कुमार की कलम से निकली हैं।
हालाँकि
इस बात में कोई शक नहीं है कि इस ज़िक्र के बिना भी देर-सवेर दुष्यंत के लिखे शेर
हिन्दी बोलने, समझने और लिखने वाली नयी पीढ़ी तक पहुँच ही जाते। इस बात की तसल्ली
करनी हो तो कहीं स्कूली बच्चों या कॉलेज के नव युवाओं के लिए रखे गये भाषण या
वाद-विवाद प्रतियोगितायों में कभी पहुँचिये। वहाँ तय किये गए विषय भले कुछ भी हों,
इस बात की भरपूर संभावना है कि आप को वहाँ दुष्यंत के शेर सुनने को ज़रूर मिल
जाएँगे। दुष्यंत की ग़जलों की यह ख़ासियत है कि यह सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों से
हमेशा नये लगते हैं। दुर्भाग्य का ज़िक्र इसलिए कि जिन परिस्थितिथियों ने दुष्यंत
को व्यथित किया वे सौगात के बतौर न जाने हम सब को कब तक मिलती रहेंगी।! पीर के
पर्वत हो जाने का यह सिलसिला न जाने कब थमेगा!
दुष्यंत
के शेर विकट परिस्थितियों से जूझने का जज़्बा देते हैं। वे पीर के पर्वत को पिघलाए जाने
की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं, बुनियाद के हिलाए जाने की ज़रूरत पर जोर देते हैं, वे
आकाश के तारों के बजाय घर के अंधेरों पर ध्यान देने की बात करते हैं, वे अपने
बाजुओं पर भरोसा करने की ज़रूरत पर इस तरह बल देते हैं कि कट चुके हाथों में
तलवारें देखना खुद को भ्रम में रखने के अलावा कुछ भी नहीं है। दुष्यंत असंभव को इस
तरह नकारते हैं कि तबीयत से उछाला गया पत्थर आसमां में भी सुराख कर सकता है, और भी
बहुत कुछ!
दुष्यंत
की गज़लों के संकलन ‘साये में धूप’ से जब आप गुज़रेंगे, तब आपको महसूस होगा कि इस पतली सी किताब में शायद ही ऐसा
कुछ हो, जो छूट गया हो! इसलिए कहा जाता है कि देश की सभी भाषाओं को बरतने वाले लोग
चाहते हैं कि उनका भी अपना एक दुष्यंत हो!
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