Tuesday, 26 December 2017

____ 2017 की उल्लेखनीय हिन्दी फ़िल्में ____

2017 में रिलीज हुई फ़िल्मों में से कई फ़िल्में वही फार्मुला फिल्में थींजो हर वर्ष अलग-अलग मुखौटों में दर्शकों की जेब कतरने आती हैं। हर वर्ष की तरह कुछ फ़िल्में बेहद बकवास थींतो कुछ फ़िल्में सामान्य कोटि की थीं। इस तरह की फ़िल्मों पर चर्चा करने का कोई बहुत मतलब नहीं बनता। लेकिन लगभग हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी कुछ ऐसी फ़िल्में आयींजिन्होंने दर्शकों के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। कुछ ऐसी फ़िल्में भी आयीं जो अपनी कुछ कमजोरियों के कारण दर्शकों का मन जीतते-जीतते रह गयीं। कुछ ऐसी फ़िल्में भी प्रदर्शित हुईंजिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर न तो बहुत कमाई की और न ही वह चर्चा बटोर पायींजिसकी वो वास्तव में हक़दार थीं। यहाँ इन कुछ श्रेणियों की फिल्मों पर चर्चा की जा रही है। इस चर्चा में फिल्मों का क्रम उनकी प्रदर्शन तिथि के आधार पर रखा गया है। संभव है कि व्यक्तिगत सीमाओं के कारण कुछ फ़िल्मों का ज़िक्र छूट गया हो। इस बात का खेद है कि चर्चा में शामिल दो फिल्मों  'राग देश' और 'पंचलैट' को देख पाने का मुझे अवसर नहीं मिल सका। सोशल मीडिया और समीक्षकों की प्रतिक्रियायों के आधार पर ये फिल्में मुझे उल्लेखनीय लगीं। इन दोनों ही फिल्मों की चर्चा उपलब्ध प्रतिक्रियायों के आधार पर ही करनी पड़ी है।
हरामखोर (13 जनवरी)
    श्लोक शर्मा निर्देशित इस फ़िल्म के लिए जो विषय और पृष्ठभूमि चुनी गयी है, उस ओर हिन्दी सिनेमा का ध्यान कम ही गया है । ग्रामीण पृष्ठभूमि की भीतरी परतों में कुंठा और शोषण के सामंती संस्करण ही नहीं, और भी कई संस्करण मौज़ूद होते हैं। एक कुंठित और घटिया मानसिकता के स्कूल टीचर को केन्द्र में रख कर एक अस्वस्थ परिवेश और उसके बेहद नकारात्मक परिणामों को दृश्यों में उतार पाने में यह फ़िल्म सफल रही है। फ़िल्म का अभिनय पक्ष भी मजबूत है।
इरादा (17 फरवरी)
कुछ देखने लायक फ़िल्में कब आती हैं,और आकर चली जाती हैं, भनक तक नहीं लग पाती! फिर कभी यूँ ही भूले- भटके आपको वो फिल्म दिख जाए, और देखने के बाद लगे कि यह तो एक ज़रूरी फ़िल्म है। इरादाएक ऐसी ही फ़िल्म है। कैमिकल फैक्टरियों से निकलने वाले खतरनाक कचरों को रिवर्स बोरिंग के माध्यम से ज़मीन में ही दबा देने के दुष्परिणामों को इस फिल्म के केन्द्र में रखा गया है। इससे आस-पास के इलाके में भूमिगत जल, फसलों के इसके प्रभाव में आने से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी फैलती चली जाती है। फ़ायदे के लिए सत्ता और व्यापारियों की गठजोड़ से इस तरह के काम धड़ल्ले से होते हैं, यह भी इस फ़िल्म में दिखाया गया है। इसमें नसीरुद्दीन शाह, दिव्या दत्ता, अरशद वारसी, सागरिका घटगे सहित कई मंझे हुए कलाकार हैं। निर्देशक अपर्णा सिंह ने अच्छे इरादे से एक अच्छी फ़िल्म बनाई है।
ट्रैप्ड (17 मार्च)
विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशित इस फ़िल्म की तारीफ इसलिए भी हुई कि इसके केन्द्र में मनुष्य की जिजीविषा है। विपरीत परिस्थितियों में भी उससे बाहर आ जाने की उम्मीद बनाए रखना, उसके लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता को ही इस फ़िल्म की लगभग पूरी अवधि में जगह दी गयी है। इस फ़िल्म में केन्द्रीय भूमिका राजकुमार राव ने निभायी है। फ़िल्म में कुछ कमज़ोर कड़ियाँ लग सकती हैं, लेकिन फ़िल्मकार के फोकस के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए।
पूर्णा (31 मार्च)
         बायोग्राफिक फिल्मों का अपना अलग महत्व है, लेकिन यदि ऐसी फ़िल्में अपना विषय समाज के उपेक्षित हिस्सों से चुनती हैं तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। तेलंगाना की एक किशोर आदिवासी लड़की के सबसे कम उम्र में एवरेस्ट फतह करने के पीछे अभावों और चुनौतियों को मात देने की जो कहानी है, वह प्रेरणास्पद है। निर्देशक राहुल बोस की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने ऐसे विषय को चुना है और इसके साथ सही बर्ताव किया है।
मुक्ति भव(07 अप्रैल)
बतौर निर्देशक शुभाशीष भुटियानी की यह पहली फीचर फ़िल्म है। महज छब्बीस वर्ष के शुभाशीष की निर्देशकीय प्रौढ़ता चकित करती है। बिना किसी हड़बड़ी के और ज़रूरी ठहरावों के साथ चलने वाली इस फिल्म का एक भी दृश्य, एक भी संवाद फालतू नहीं है। मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए ‘काशी प्रवास’ की जो परंपरा रही है, उससे प्रेरित होकर बनायी गयी यह फ़िल्म भावना, विचार और जीवन दर्शन के कई ज़रूरी पहलुओं को छूती है। इस फ़िल्म का अभिनय पक्ष भी बहुत प्रभावी है।
हिंदी मीडियम (19 मई)
यह फिल्म अपनी कसावट में कहीं-कहीं थोड़ी चूकी हुई जरूर लगती है, लेकिन ये चूक बेहद मामूली है। इस फिल्म के निर्देशक की इस बात के लिए तारीफ़ ज़रूर होगी कि उन्होंने इसे मनोरंजक बनाये रखने के लिए, लगभग सभी तत्वों का इस्तेमाल करते हुए भी, उस पर हिंदी फिल्मों के चालू फॉर्मूलों को हावी नहीं होने दिया है।
इरफ़ान ख़ान, सबा क़मर और दीपक डोबरियाल सहित सभी कलाकारों का अभिनय बेहद उम्दा है। लेकिन सिर्फ इसीलिए नहीं, इस फिल्म को जीनत लखानी और निर्देशक साकेत चौधरी की लिखी एक अच्छी कहानी और पटकथा पर बनी फिल्म देखने के खयाल से भी देखना चाहिए। शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी एक बड़ी समस्या पर यह फिल्म बनायी गयी है। इस तरफ हिन्दी फिल्मकारों का ध्यान नहीं के बराबर गया है। देश की आजादी के 70 साल बाद भी देश की जो दुर्दशा है, उसके बड़े जिम्मेवार ‘तबक़े’ को पहचानने में यह फिल्म बहुत मददगार है।
फुल्लू (16 जून)
अक्षय कुमार के स्टारडम और चुने गये विषय को भुनाकर आने वाले नये साल के पहले ही महीने में दर्शकों की जेब खाली करने के लिए जब ‘पैडमैन’ बनकर तैयार है, तब इस वर्ष रिलीज हुई इसी तरह के विषय पर बनायी गयी फ़िल्म ‘फुल्लू’ का जिक्र करना अधिक ज़रूरी हो जाता है। अभिषेक सक्सेना निर्देशित यह फ़िल्म हर कोण से तारीफ के लायक तो नहीं है, लेकिन सेनेट्री पैड को सुलभ बनाने की एक अनपढ़ ग्रामीण युवक की ज़िद, जुनून और संघर्ष को इस फ़िल्म ने सही बर्ताव के साथ स्क्रीन पर उतारा है। फ़िल्म का दृष्टिकोण स्त्रीसंवेदी है। अभिनय पक्ष की भी तारीफ की जा सकती है। इस फिल्म में एक ख़ास क़िस्म की नाटकीयता है, जो दर्शकों के एक बड़े तबके को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। यदि ऐसी फ़िल्मों को सुदूर इलाकों में विशेष उद्देश्य के साथ घूम-घूम कर दिखाया जाए तो सेनेट्री पैड और माहवारी जैसे मुद्दों पर पर्याप्त जागरूकता लायी जा सकती है।
लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा (21 जुलाई)
       एक वाक्य में कहा जाए तो लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ास्वाभाविक इच्छाओं, सपनों और आज़ादी के अनावश्यक दमन या इन पर ग़ैर ज़रूरी बंदिशों, पाबंदियों के नकारात्मक परिणामों पर केन्द्रित फ़िल्म है। इसका शीर्षक एक रूपक (Metaphor) है, जो फिल्म की विषय-वस्तु के आधार पर सार्थक है। इस फिल्म को अच्छी कहने के बावज़ूद, मैं बहुत प्रभावशाली नहीं कहूँगी। फिर भी अर्थपूर्ण सिनेमा की खोज़ में रहने वाले दर्शकों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म एक ज़रूरी संदेश देती है, लेकिन इसे ग्रहण करने के लिए इस लायक संवेदनशीलता की ज़रूरत पड़ेगी। फ़िल्म का अभिनय पक्ष प्रशंसनीय है।
इंदु सरकार (28 जुलाई)
मेरे खयाल से इमरजेंसी के हालात को केन्द्र में रखकर बनाई गई किसी भी फिल्म को देखकर इमरजेंसी के बाद जन्मी या होश संभालने वाली पीढ़ी को यह एहसास नहीं होगा कि वे खाली हाथ उठे हैं। 'इंदु सरकार' भी इमरजेंसी के दौर की संवेदनहीन सत्तासंस्कृति से परिचय कराती है । इस फ़िल्म का अभिनय पक्ष भी प्रभावशाली है, लेकिन इस फिल्म में भारी अधूरापन और राजनीतिक लोचा है। इसे समझने के लिए आपको इस फ़िल्म को देखने के अलावा इमरजेंसी के दौर के हालात और उस दौर के जन आंदोलनों के बारे में मुक्कमल जानकारी की दरकार होगी। संकेत में फिलहाल इतना ही कि यह फ़िल्म वर्तमान में केन्द्र में सत्तासीन राजनीतिक दल को, पक्षपातपूर्ण तरीके से जनपक्षधर क्रांतिकारी विरासत पर खड़ा करने में अपनी भारी उर्जा लगा देती है। यह मान लेना दुखद तो है, लेकिन यही सच है कि मधुर भंडारकर अब निष्ठावान फिल्मकार नहीं रहे।
रागदेश (28 जुलाई)
तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन की अपनी एक साख है। इस फिल्म के लिए उन्होंने आई.एन.ए के सैन्य अधिकारियों से जुड़े जिस विषय का चयन किया है, वह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की एक कम ज्ञात लेकिन महत्वपूर्ण घटना है। हिन्दी सिनेमा ऐतिहासिक विषय वस्तु के साथ बुरा बर्ताव करने के लिए कुख्यात है, लेकिन इस फ़िल्म के लिये किये गये रिसर्च और उसके सही उपयोग के लिए इसकी तारीफ हुई है। हमारे इतिहास के कई प्रसंगों पर पूर्वाग्रहमुक्त और प्रामाणिक फ़िल्में बनाए जाने की बहुत आवश्यकता है।
न्यूटन (22 अगस्त)
उस दौर में जब व्यवस्थाजनित विकट परिस्थितियों का हमें लगातार सामना करना पड़ रहा है, हम न्यूटनजैसी फिल्मों से उर्जा हासिल कर सकते हैं। अमित मसुरकर निर्देशित यह फिल्म स्पष्ट रूप से यह संदेश देती है कि ईमानदारी अहंकार का विषय नहीं है, बल्कि इसे तो मनुष्य का सहज स्वाभाविक गुण होना ही चाहिए। इसी तरह यह भी कि बिना बदले कुछ भी नहीं बदलता! फ़िल्म के दृश्य, कथा और संवाद इस बात की तस्दीक करते हैं कि यह फ़िल्म कितने अधिक सकारात्मक और संवेदनशील दृष्टिकोण के साथ बनायी गयी है।
करीब करीब सिंगल (10 नवम्बर)
बेहद खूबसूरत पटकथा की बेहद ख़ूबसूरती के साथ फिल्मायी गयी तनुजा चंद्रा निर्देशित इस फिल्म को देखकर जब आप उठेंगे तो निश्चित रूप से आप सकारात्मक महसूस करेंगे। इस फ़िल्म में प्यार की तलाश करते किरदार दिखते हैं, प्यार और दृष्टिकोण की जटिलताएँ और विविधताएँ दिखती हैं, और जीवन को खूबसूरती से जीने की ललक भी दिखाई देती है। इरफान खान और पार्वती ने बहुत सहज अभिनय किया है। व्यक्तियों के स्वभाव, मनोभावों, परिस्थितियों आदि का इस फिल्म में बड़ी सूक्ष्मता के साथ फिल्मांकन हुआ है।
तुम्हारी सुलु (17 नवम्बर)
इस फ़िल्म में महानगर के निम्न मध्यवर्गीय जीवन की बाधाओं, आकांक्षाओं, सीमाओं और संभावनाओं को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। इस फ़िल्म की बड़ी ख़ासियत यह है कि इसके केन्द्र में एक स्त्री पात्र है। इस फिल्म में विद्या बालन और मानव कौल सहित सभी कलाकारों ने बहुत सहज अभिनय किया है। यह फ़िल्म उन निम्न मध्यवर्गीय संस्कारों से उबरने को प्रेरित करती है, जो प्रगति विरोधी हैं। सुंदर पटकथा और बेहतर निर्देशन के लिए सुरेश त्रिवेणी तारीफ के हक़दार हैं।
पंचलैट (17 नवम्बर )
हिदी सिनेमा में हिन्दी साहित्यकारों की कृतियों पर फ़िल्में बनाने की परंपरा बहुत कमज़ोर रही है। यदि फ़िल्में बनती भी हैं तो अक्सर मूल कथा के साथ सही बर्ताव नहीं किये जाने की बात सामने आती है। दशकों पहले शैलेन्द्र ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गये गुलफ़ाम’ के साथ, व्यावसायिकता के दबाव को परे रख, सही बर्ताव करते हुए फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ बनायी थी। फ़िल्म तो बहुत उम्दा बनी, लेकिन आर्थिक घाटे ने शैलेन्द्र को तोड़ कर रख दिया था। इस वर्ष निर्देशक प्रेम प्रकाश मोदी ने जब रेणु की ही एक कहानी ‘पंचलाइट’ को आधार बनाकर फिल्म बनायी तो उस ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। मूल कथा नाटकीयता के साथ बहुत हल्के फुल्के अंदाज में समाजिक, आर्थिक ग़ैरबराबरी की बात को उठाती है और सहज लोगों की दुनिया से परिचय कराती है। फिल्मकार की इस बात के लिए प्रशंसा हुई है कि एक छोटी सी कहानी को लगभग सवा दो घंटे का विस्तार देते हुए भी फिल्म में मूल कथा और उसकी सम्वेदना का लोप नहीं होने दिया गया है। मंझे हुए कलाकारों के अभिनय से जो हमारी उम्मीदें होती हैं, यह फ़िल्म उसे भी पूरा करती हैं।
कड़वी हवा (24 नवम्बर)
नील माधब पांडा की फिल्मों मे पर्यावरण की चिंता कहीं न कहीं ज़रूर मौजूद रहती है। 'कड़वी हवा' में पर्यावरण के बदलते स्वरूप के दुष्प्रभावों को दिखाया गया है। लेकिन इसके अलावा इसके और भी कई आयाम हैं। मसलन कृषि संकट और कर्ज में डूबे किसानों की समस्या दिखाई गयी है, सरकारी उदासीनता और भारी असंवेदनशीलता दिखाई गयी है। गरीबी और लाचारी दिखाई गयी है।
फिल्म दो घंटे से भी कम समय की है। धीमी गति से चलती है और कहीं-कहीं थोड़ी बोझिल भी हो जाती है। जिस मोड़ पर आकर यह लगने लगता है कि असली कहानी अब शुरू होगी, ऐसे मोड़ पर आकर यह खत्म हो जाती है। यह फिल्म आपको समझाने के बजाय आपकी समझ पर अधिक यकीन करती है। सहजता से चलने वाली यह फिल्म भी एक जटिल कविता की तरह खत्म हो जाती है, जिसके अनेक अर्थ आपको तलाशने होते हैं।
फिल्म की चिंता ईमानदार है। केन्द्रीय भूमिका निभा रहे संजय मिश्रा और रणवीर शौरी का अभिनय पसंद करने लायक है। फिल्म और अधिक संप्रेषणीय और अधिक प्रभावी बनायी जा सकती थी, लेकिन जैसी भी बनी है, सराहने लायक है। फिल्मकार व्यावसायिक फायदे के लिए अपने उद्देश्यों से समझौते नहीं करे, बेईमानी न करे, हमारे समय में फिल्म के दर्शको के लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा!
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[थोड़े-बहुत सम्पादन के साथ 27 दिसम्बर को यूथ की आवाज़’ (YKA) पर भी प्रकाशित]
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