हैदराबाद
विश्वविद्यालय में ‘पत्रकारिता के विकास में हिंदी
की भूमिका एवं तकनीकी शब्दावली का महत्त्व’ विषय पर आयोजित
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आज समापन हुआ। साहित्य के विद्यार्थियों के लिए
इस तरह के विषय थोड़े बोझिल होते हैं लेकिन लगातार हुई चर्चा-परिचर्चा को सुनने और
उसमें अपनी भागीदारी निभाने के बाद हमें लगा कि यह विषय महत्वपूर्ण है, और इस पर, खासतौर पर तकनीकी शब्दावली के विभिन्न
पहलुओं पर पर्याप्त चर्चा-परिचर्चा की आवश्यकता है।
अकादमिक
संगोष्ठियों में जिस तरह की लूटमार और ठगी मची रहती है, यदि आप उसके अपवाद की बात करना चाहें तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिंदी
विभाग में होने वाले सेमिनारों का ज़िक्र कर सकते हैं। अब तक मैंने अपने विभाग में
हुई जितनी संगोष्ठियों को देखा है, उनमें कभी रजिस्ट्रेशन
शुल्क नहीं वसूला जाता और न मैंने कभी किसी को यह शिकायत करते सुना है कि उन्हें
प्रपत्र प्रस्तुत करने का मौका नहीं दिया गया। सेमिनार के प्रमाणपत्र चूँकि
अकादमिक महत्त्व के होते हैं इसलिए मुख्य सत्रों के समानांतर सत्र चलाकर भी
शोधार्थियों को प्रमाणपत्र हासिल करने के अवसर दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त दो
दिनों तक लगातार चाय-नाश्ता, और सादगी से बना खाना-पीना जो कुछ
भी होता है, वह सभी वक्ताओं, श्रोताओं,
कर्मचारियों, मजदूरों और यहाँ तक कि उस समय
पहुँच गये किसी भी आगंतुक के लिए मुफ्त उपलब्ध रहता है।
लेकिन
इस बार का सेमिनार और भी कई मायनों में ख़ास रहा। मेरी जानकारी में यहाँ पहली बार
शोधार्थियों को समानांतर सत्र की बजाय मुख्य सत्र में अन्य विद्वानों के साथ
प्रपत्र प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया और उन्हें भी बहुत महत्त्व के साथ सुना और
सराहा गया। इस बार इस कार्यक्रम का पूरा खर्चा ‘वैज्ञानिक
एवं तकनीकी शब्दावली आयोग’ ने उठाया था और मेरे खयाल से इसका
पूरा सदुपयोग हमारे विभाग ने किया। इस बार हम लोगों के लिए एक सरप्राइज भी था और
वह यह कि शब्दावली आयोग ने समस्त शोधार्थियों और प्रतिभागियों के लिए एक किट
भिजवायी थी जिसमें एक सुन्दर सा लैपटॉप बैग, कुछ किताबें और
एक नोटबुक थी। बाकी जगहों के जो मेरे अनुभव हैं और जितनी मेरी जानकारी है कि बिना
दो सौ-पाँच सौ-हजार वसूले तो एक मामूली सा फोल्डर भी कहीं नहीं दिया जाता। हिंदी
विभाग ने शब्दावली आयोग के साथ तालमेल बिठाकर निस्संदेह एक अच्छा और उपयोगी आयोजन
किया है। वे सभी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष ही
नहीं, परोक्ष रूप से भी इस संगोष्ठी को सफल बनाने में दिन-रात
मेहनत की।
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