हैदराबाद
के किसी मल्टिप्लैक्स में यदि किसी हिन्दी फिल्म के (ख़ास तौर पर लीक से हट कर
बनायी गयी फिल्म के) रिलीजिंग डे के दूसरे शो में अच्छी खासी भीड़ जुटी हो तो कोई
शक नहीं रह जाता कि यह फिल्म ठीक-ठाक बिजनेस कर लेगी। कल रिलीज हुई फिल्म ‘मंटो’ को लेकर मेरा यही अनुभव रहा। मेरे खयाल से
इसमें ‘मंटो’ के प्रमोशन के लिए की गयी
मेहनत की बड़ी भूमिका है।
2012
से नंदिता इस विषय पर काम कर रही थीं। उनके मुताबिक काफी रिसर्च करके उन्होंने इस
फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार की। नंदिता को फिल्म जगत से जुड़े कुछ एक बौद्धिकों में
शुमार किया जाता है। उन्होंने बेहद चुनिंदा फिल्मों में अभिनय किया है। बेहतरीन
अभिनय के लिए उनकी खूब तारीफ भी होती रही है। निर्देशक के बतौर नंदिता को लोगों ने
2008 में तब जाना जब गुजरात दंगों पर आधारित उनकी फिल्म ‘फ़िराक’ रिलीज़ हुई। यह बहुत ही संजीदगी के साथ बनायी
गयी एक ज़रूरी और उम्दा फिल्म है। ‘मंटो’ उनके द्वारा निर्देशित दूसरी फिल्म है।
यह
फिल्म उर्दू के मशहूर अफसानानिग़ार सआदत हसन मंटो के जीवन और उनकी रचनाओं पर आधारित
है। फिल्म के लिए इस तरह के विषय का चयन ही चुनौतीपूर्ण होता है। मेरे खयाल से
नंदिता का दृष्टिकोण उन्हें इस तरह की चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता
है। इस फिल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह मंटो की जिंदगी, उनकी सोच और उनके रचनात्मक कार्यों के महत्व से नयी पीढ़ी को परिचित कराती
है।
इन
सब बातों के होते हुए भी मुझे यही लगा कि यह फिल्म मंटो पर किया गया कोई महीन काम
नहीं है। यहाँ तक कि मंटो के मन की उथल-पुथल और रचनात्मक बेचैनियों को जिस शिद्धत
से उकेरा जाना चाहिए था, उसका अभाव खटकता है।
नवाज़ुद्दीन भले ही मंझे हुए अभिनेता हैं, लेकिन मंटो को अपने
भीतर उतारने में वह उस तरह से कामयाब नहीं हो सके हैं, जैसी
कामयाबी उन्होंने फैज़ल, स्कूल मास्टर श्याम, रमन राघव या गायतोंडे जैसे किरदारों को अपने भीतर उतार पाने में हासिल की
है। इसे नवाज़ से अधिक नंदिता की निर्देशकीय कमज़ोरी कहा जा सकता है।
फिल्म
में मंटो की कुछ कहानियों का फिल्मांकन यदि प्रभावित करने वाला है, तो कुछ कहानियों का फिल्मांकन बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता। इसका एक
कारण यह भी हो सकता है कि नंदिता दो घंटे में बहुत कुछ दिखा देने के लालच से खुद
को नहीं बचा नहीं पायी हैं। कई जगहों पर जहाँ धैर्य और ठहराव की ज़रूरत महसूस होती
है, फिल्म भागती नज़र आती है, वहीं
कहीं-कहीं मामूली दृश्यों को अनावश्यक ही लम्बा कर दिया गया है।
बहुत
सारे चर्चित अभिनेताओं की झलक इस फिल्म में आप देख सकते हैं, लेकिन इससे कोई प्रभाव उत्पन्न किया जा सका हो, ऐसा
मुझे नहीं लगता है। रसिका दुग्गल ने मंटो की पत्नी के किरदार को अच्छे से निभाया
है। मंटो के ख़ास दोस्त श्याम चड्ढा का किरदार निभा रहे, ताहिर
राज़ भसीन भी प्रभावित करते हैं। मुझे तो यह भी लगा कि बहुत से किरदारों के साथ
ज़्यादती हुई। मसलन अशोक कुमार और फैज़ अहमद फैज़ का किरदार बेजान लगता है।
इन
सब बातों के अलावा इस फिल्म में एक बात जो मुझे बेहद अखरी वो है ‘भाषा’ को लेकर बरती गयी लापरवाही। मंटो लुधियाना के
एक गाँव में पैदा हुए थे। वे कश्मीरी मूल के मुसलमान थे, लेकिन
उनका परिवार पीढ़ियों पहले पंजाब में आकर बस गया था। लिहाज़ा पंजाबी उनकी मादरी
जबान की तरह थी। मंटो अपने सम्बंधियों और पंजाबी दोस्तों से अक्सर पंजाबी में बात
किया करते थे। उनकी कहानियों में पंजाबी शब्दों, वाक्यों की
भरमार देखने को मिलती है, लेकिन इस फिल्म में पंजाबीपन सिरे
से गायब कर दिया गया है, यहाँ तक कि लाहौर के बाज़ार में भी
कोई पंजाबी नहीं बोलता! ‘ठंडा गोश्त’ कहानी
की बुनावट में चूँकि पंजाबी है इसलिए मात्र इसके फिल्मांकन में पंजाबी शामिल है।
हालांकि इसे यह कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश की जा सकती है कि एक हिन्दी फिल्म के
लिए भाषा की यह छूट ली जा सकती है, लेकिन तब भी इस बात से
इंकार नहीं किया जा सकता है कि इससे फिल्म कमज़ोर हुई है। हिन्दी में ऐसी कई
फ़िल्में बनी हैं, जब किसी ऐतिहासिक पात्र को कहानी का आधार
बनाया गया तो रहन-सहन और भाषाई स्तर पर वास्तविकता को सामने लाने की कोशिश की गयी।
नंदिता चाहती तो मंटो से उनकी पत्नी, उनकी बहन या उनके दोस्त
श्याम चड्ढा से बातचीत करते हुए पंजाबी के कुछ छोटे-मोटे वाक्य बुलवाकर इस ओर कम
से कम संकेत संकेत कर सकती थीं। खुद अपनी पहली फिल्म ‘फ़िराक’
में नंदिता ने अपने कुछ गुजराती पात्रों से गुजराती बुलवाई है।
खैर
इन कमज़ोरियों के बावज़ूद इस फिल्म को देखने ज़रूर जाना चाहिए। एक तो यह ज़रूरी नहीं
कि मुझे जो बातें खटकी वह सबको खटके, दूसरी बात
यह कि इस तरह की फिल्मों का बनना ही बड़ी बात है। इस तरह की फिल्मों के पीछे समाज
की बेहतरी का जो उद्देश्य निहित होता है, वह बहुत ही
महत्वपूर्ण और पवित्र होता है। ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की फिल्में बनाने का
साहस किया जा सके। स्वाभाविक है कि कुछ फिल्में थोड़ी कमज़ोर बनेंगी तो कुछ बहुत
उम्दा भी बनेंगी। सिनेमा की यह समानांतर संस्कृति जिंदाबाद रहनी चाहिए।
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