Wednesday, 5 September 2018

गुरु कुम्हार शिष कुंभ

हमें हायर सेकेंडरी स्कूल के दिनों में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने वाले सर को आज याद कर रही हूँ। वे क्लास में जब-जब किसी बच्चे को किसी बात पर डांटते या पीटते (हालांकि वे पीटते बहुत कम थे, और वह भी सिर्फ लड़कों को बल्कि ढीठ लड़कों को) तो उसके तुरंत बाद वे कबीर का एक दोहा लगभग हर बार सुनाया करते – “गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।
मैं अब सोचती हूँ कि वे डांट तो देते थे, लेकिन उसके बाद उनके भीतर शायद कोई अपराध बोध रह जाता था, या उन्हें इसका अफ़सोस होता था या कम से कम यह कि मार-फटकार का काम उनके लिए आनंद का विषय नहीं था, जैसा कई शिक्षकों के लिए हुआ करता है! वे न केवल कबीर का यह दोहा सुनाया करते थे, बल्कि हर बार इसका अर्थ भी बताया करते थे। वे कहते थे कि गुरु जब डांटता है, या आपको कड़ाई से कुछ समझाता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह आपसे प्यार नहीं करता बल्कि ऐसा वो इसलिए करता है कि आप के गढ़े जाने में कोई कमी न रह जाये!
वे अच्छा पढ़ाते थे, लेकिन आज मैं उन्हें उनके पढ़ाने के लिए याद नहीं कर रही हूँ, न ही उनके डांटने-फटकारने के लिए बल्कि कबीर का दोहा सुनाते हुए और उसका अर्थ समझाते हुए उनके चेहरे पर जो भाव उभरा करते थे मैं उन भावों को याद कर रही हूँ। उनमें जैसे पीड़ा, विवशता, सद्भावना, पारंपरिक कर्त्तव्यबोध और भय सब मिले-जुले होते थे। शिक्षक के रूप में यह उनकी अपनी सीमा का भी परिचायक था लेकिन साथ ही उनकी संवेदनशीलता का भी!

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