इस
चिड़ियाघर ने भी उतना ही निराश किया जितना किसी अन्य चिड़ियाघर में जाकर मैं निराश हुई
थी। मैंने सोचा था कि क्योंकि यह बहुत विशाल चिड़ियाघर माना जाता है तो यहाँ
पशु-पक्षियों के घूमने फिरने के लिए ज़्यादा जगह होगी और अपेक्षाकृत वे अधिक आज़ाद
होंगे। लेकिन वास्तव में यहाँ भी लगभग सभी पशु-पक्षी एक बदतर कैदी जीवन ही जी रहे
थे। ये सब देखकर मुझे बस यही लगता है कि चिड़ियाघर जैसी चीज़ होनी ही नहीं चाहिए!
किसी पशु-पक्षी के बारे में जानने-समझने और उनसे परिचित होने की अब बहुत सारी
मानव-निर्मित तकनीकें विकसित हो चुकी हैं।
‘नन्दन
कानन’ में तब मेरा ध्यान जिस एक पशु ने सबसे अधिक खींचा था, वह वन-मानुष था। वह एक
बड़े से बेंचनुमा पत्थर पर बैठा हुआ था। अपने दायरे में वह अकेला था और जैसे कोई मनुष्य गहरी
चिंता या सोच में डूबा हुआ चेहरे पर हाथ रखकर बैठा होता है, वह वन-मानुष ठीक उसी
तरह बैठा हुआ था। उसका वजन भी सामान्य से अधिक लग रहा था। बाड़े के बाहर आते-जाते,
शोर मचाते और उसकी तस्वीरें लेते लोगों से उसे तिनका भी फर्क नहीं पड़ रहा था।
यहाँ तक कि उसके इर्द-गिर्द धमाचौकड़ी कर रहे बन्दर भी उसे विचलित नहीं कर पा रहे
थे। कुल मिलकर यह वैसा ही था जैसे कोई बेहद हताश व्यक्ति कहीं अकेले इस तरह बैठ
गया हो कि पूरी दुनिया उसके लिए बेमानी हो गयी हो! उस वन-मानुष की इस दशा और इस
मुद्रा की याद मुझे अक्सर कई बार आती रही है।
कल
रात अचानक से एक खबर पर नज़र पड़ी कि ‘नन्दन-कानन’ के उस वन-मानुष की मौत हो गयी है।
कल ही मुझे कुछ नयी बातें पता चली वह यह कि वह वन-मानुष मादा थी और भारत की इकलौती
वन-मानुष थी। उसका नाम ‘बिन्नी’ था और वह 41 साल की थी। पिछले लगभग एक साल से वह
काफी बीमार थी और उसका इलाज भी चल रहा था। वन-मानुष की औसत आयु 45 वर्ष मानी जाती
है, इस लिहाज़ से उसकी उम्र कम नहीं थी लेकिन सच तो यह है कि नितांत अकेलेपन और कैद
ने बहुत पहले ही उससे उसकी सहजता और उत्साह छीन लिया था। हमें यह ज़रूर सोचना चाहिए
कि हम ‘मानुष’, भारत के इस अंतिम वन-मानुष के कितने बड़े गुनाहगार हैं!
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