Monday 18 November 2019

डॉ. फ़िरोज़ की नियुक्ति का विरोध और जगन्नाथ-लवंगी प्रसंग


बीएचयू में संस्कृत के सहायक प्राध्यापक के रूप में डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्रों में से कुछ छात्रों के विचार एक न्यूज़ चैनल की वीडियो फुटेज के माध्यम से जानने को मिले। अधिकांश छात्रों ने बताया कि वे काशी की परंपरा और गरिमा को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कोई विधर्मी और अनार्य उन्हें धर्म पढ़ाए-सिखाए ये उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पक्ष को अधिक मजबूती से पेश करने के लिए एक छात्र ने पंडितराज जगन्नाथ से जुड़े प्रसंग का ज़िक्र करते हुए कहा कि आचार्य जगन्नाथ भले ही बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और धर्मज्ञ रहे हों, लेकिन काशी के समाज ने उनका भी इसलिए बहिष्कार कर दिया था; क्योंकि उन्होंने एक यवन (मुसलमान) कन्या से शादी की थी। अफसोस है कि उस छात्र ने इस प्रसंग का अधूरा ज़िक्र किया!
लोगों के बीच यह प्रसंग जिस रूप में सुरक्षित है, वास्तव में वह आत्मा की गांठे खोल देने वाला है। कहते हैं कि पंडितराज जगन्नाथ का लवंगी नाम की जिस लड़की से प्रेम हुआ था, वह शाहजहाँ के परिवार में पली-बढ़ी एक अनाथ कन्या थी। उसके माता-पिता मुसलमान थे।
लवंगी से विवाह के बाद आचार्य जगन्नाथ काशी लौटे। काशी के विद्वानों ने हाय तौबा मचाना शुरू कर दिया, उनका बहिष्कार कर दिया और स्थिति यह हो गई कि एक बेहद योग्य और विद्वान व्यक्ति का जीवन-यापन तक दूभर हो गया। ऐसी स्थिति में बहुत क्षुब्ध होकर पंडितराज ने कहा कि काशी के पंडित उनका बहिष्कार करने वाले कोई नहीं होते; काशी के द्वारा उन्हें और उनके विवाह को स्वीकारने-अस्वीकारने का निर्णय सिर्फ माँ गंगा कर सकती हैं। इसके बाद उन्होंने घोषणा की कि काशी का समाज गंगा तट पर आकर खुद अपनी आँखों से देख सकता है कि माँ गंगा उन्हें ठुकराती हैं या स्वीकारती हैं।
तय तिथि को नियत घाट पर काशी निवासियों की पूरी भीड़ जमा हो गई। लवंगी के साथ पंडितराज जगन्नाथ भी घाट की सबसे ऊपरी सीढ़ी पर बैठ गए। इसके बाद पंडितराज ने गंगा की स्तुति में श्लोक लिखने शुरू किए। कहा जाता है कि उनके एक-एक श्लोक रचने और पढ़ने के साथ गंगा का जल स्तर भी एक-एक सीढ़ी ऊपर आता जाता। इस तरह उन्होंने कुल 52 श्लोकों की रचना की और गंगा का जल उस अंतिम बावनवी सीढ़ी तक पहुँच गया जहाँ पंडितराज और लवंगी बैठे हुए थे। अपने आह्वान पर गंगा के उन तक पहुँचने पर पंडितराज भाव विह्वल हो गए और उनका गला रूंध गया। रूंधे गले से उन्होंने प्रार्थना की कि माँ गंगे उन्हें और लवंगी को स्वीकार कर अपनी शरण में लें। तब पूरी भीड़ के बीच से गंगा ने दोनों को इस तरह से समेटा जैसे कोई माँ अपने बच्चों को गोद में उठा रही हो। इसके बाद कुछ क्षणों में ही गंगा का जलस्तर सामन्य हो गया।
यह प्रसंग धर्म सम्प्रदाय के कृत्रिम कट्टर विभाजन को नकार कर मनुष्य की गरिमा को स्थापित करता है। कहा जा सकता है कि मनुष्यता को स्थापित करने के लिए जगन्नाथ और लवंगी ने अपना बलिदान दिया था!
लेकिन कहते हैं कि काशी के कट्टर विद्वान समाज पर इस बलिदान का भी कोई विशेष असर नहीं पड़ा था। डॉ.फिरोज की नियुक्ति का विरोध करते हुए एक छात्र द्वारा पंडितराज जगन्नाथ के प्रसंग का अधूरा जिक्र; इसी बात को साबित करता है कि वह कट्टरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज भी कायम है!!

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