अनुभव सिन्हा की
पिछली फिल्म 'आर्टिकल 15' मुझे
बेहद पसंद आई थी और एक सकारात्मक फिल्म लगी थी। बाद के दिनों में जब 'थप्पड़' का ट्रेलर रिलीज़ हुआ ; तब
से फिल्म देखने की जिज्ञासा थी।
फिल्म
रिलीज़ हुई पर देखने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था। लोगों की प्रतिक्रियाएं भी कुछ
खास नहीं मिल रही थी। किसी ने कहा कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा के दिखाया है, तो कोई कह रहा था फालतू ड्रामा है। आज 'थप्पड़'
पर फिल्म बनी है; अब कल को उंगली पर फिल्म
बनेगी कि तुमने मुझपर उंगली कैसे उठाई! मैं कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी;
क्योंकि फिल्म देखी नहीं थी।
फाइनली
फिल्म देखने का मौका मिला। फिल्म देखने के बाद लगा कि इसे सही मायनों में काबिले
तारीफ और ज़रूरी फिल्म कहा जा सकता है। लोगों की प्रतिक्रियाओं से मुझे फिल्म में
जिस-जिस तरह के लूप होल्स की आशंका थी, शुक्र है
फिल्म में वैसा कुछ भी नहीं था। अनुभव सिन्हा इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि
जो वह दिखाना चाहते थे, उन्हें उसमें सौ प्रतिशत सफलता हासिल
हुई है। जब आप 'थप्पड़' देखकर उठेंगे तो
बहुत सारी चीज़ों पर, बातों पर सोचने के लिए मजबूर होंगे।
सही मायनों में 'थाॅट प्रवोकिंग' फिल्म
है। जहाँ बात थप्पड़ की होकर भी थप्पड़ की नहीं है। बात जो गलत हुआ उसको 'शिट हैपेन्स' कहकर टालने, गलती
को अस्वीकारने, ग्लानि बोध न होने और माफी न मांगने की है और
फिल्म में इसे दिखाने में निर्देशक कहीं चूके नहीं हैं।
फिल्म
का अभिनय पक्ष भी उम्दा है। पहली बार स्क्रीन पर दिखे पवैल गुलाटी ने मंझा हुआ
अभिनय किया है। 'आँखों देखी' के बाऊजी की बेटी बनी माया सराओ को इसमें वकील की भूमिका में पहचानना
मुश्किल है; उनका अभिनय भी बेहतर है। बाकी पूरी स्टार कास्ट
ने भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया है।
अनुभव
सिन्हा की खासियत है कि उनकी फिल्में बेहद स्पष्ट होती हैं। जो वो कहना चाहते हैं
उसमें कहीं भी आपको अस्पष्टता देखने को नहीं मिलती। उनकी पिछली फिल्मों 'मुल्क'और 'आर्टिकल 15' से भी इसे समझा जा सकता है। ये स्पष्टता ही आम से आम दर्शक को भी फिल्म से
जोड़ने में सहायता करती है।
'थप्पड़' हमारे समाज को दिखाती है। समाज की उन बारीक
चीज़ों को कवर करती चलती है; जिनके बारे में हमारा
पितृसत्तात्मक समाज सोचने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता। फिल्म आपको बहुत कुछ देकर
जाती है।
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