अपने एम.फिल.
शोध कार्य के दौरान दो साक्षात्कारों के अलावा मैंने एक परिचर्चा भी तैयार की थी ।
कुछ बाध्यताओं के कारण यह परिचर्चा लघु शोध प्रबंध का हिस्सा नहीं बन सकी थी । यह परिचर्चा ‘परिवर्तन’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर' 2016 अंक में प्रकाशित हुई है, और अब इस
ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से भी सार्वजनिक है । परिचर्चा में शामिल तीनों ही व्यक्ति हिन्दी
फिल्म समीक्षा और आलोचना के जाने माने हस्ताक्षर हैं । इन सब ने समय निकाल कर इस परिचर्चा
में हिस्सा लिया इसके लिए मैं आभार प्रकट करती हूँ ।
हिन्दी
सिनेमा के गीतों के मूल्यांकन का सवाल हाशिये का सवाल रहा है । हिन्दी सिनेमा के
गीत रचनात्मक, बहुआयामी, लोकप्रिय और प्रभावी होकर
भी गंभीर चर्चाओं के दायरे में नहीं रहे हैं । हिन्दी की साहित्यिक आलोचना से तो
ये चिर निर्वासित रहे हैं । क्या हिन्दी सिनेमा के गीतकारों का रचनात्मक अवदान
कमतर है ? उनकी अभिव्यक्ति का
संघर्ष कम महत्वपूर्ण है ? इस परिचर्चा में इस तरह
के कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं को सम्बोधित करने की कोशिश की गयी है ।
सहभागी
अरविन्द कुमार : जन्म -17 जनवरी 1930 । प्रथम संपादक के बतौर 1963 से 1978 तक अपने समय की चर्चित सिने पत्रिका ‘माधुरी’ से सम्बद्ध रहे । उल्लेखनीय फिल्म पत्रकारिता
के अलावा अनुवाद, सृजन व कोश निर्माण के लिए चर्चित । हिन्दी अकादमी, दिल्ली के
सर्वोच्च सम्मान, शलाका सम्मान (2010-2011) से सम्मानित । सम्पर्क : सी-18
चंद्रनगर,
ग़ाजिबाद – 201011.
ई-मेल - arvind@arvindlexicon.com
अजय ब्रह्मात्मज : जन्म - 30 अक्टूबर 1959 । लगभग ढाई दशकों से फिल्म आलोचना
और फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय और पर्याप्त प्रतिष्ठित । फिल्म
समीक्षा के लिए ख्यात ब्लॉग ‘चवन्नी चैप’ के संचालक ।
सम्पर्क : ई-मेल - abrahmatmaj@mbi.jagran.com
brahmatmaj@gmail.com
brahmatmaj@gmail.com
शशांक दुबे : जन्म -13
अक्टूबर 1962 । चर्चित युवा फिल्म आलोचक । ‘पहल’
और ‘ज्ञानोदय’ सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन । व्यंग्य और अनुवाद
विधा में भी दखल ।
सम्पर्क : 37/801, एनआरआई
कॉम्प्लेक्स, सी-वुड्स एस्टेट, नेरुल,
नवी मुंबई 400 706
ई-मेल: s.dubey@idbi.co.in
परिचर्चा
हिन्दी सिनेमा के गीतों के मूल्यांकन का प्रश्न
1. हिंदी
सिनेमा के गीतों का मूल्यांकन आप किस तरह करते हैं?
अरविंद कुमार : कभी हिंदी
कविता छंदबद्ध होती थी,
फिर छंदहीन भी होने लगी । गीत और कविता में भी अंतर होने लगा । धीरे
धीरे गीत लिखना निम्न श्रेणी की गतिविधि माना जाने लगा । कवि सम्मेलनों में केवल
हँसोड़ों को जगह रह गई, तो आम आदमी के लिए काव्यानुभूति का
स्रोत फ़िल्म गीत ही बचे ।
फ़िल्म गीत कविता से बढ़ कर बहुत कुछ
और भी होता है । उसमें कविता के साथ-साथ संगीत होता है, जिसे
बड़ी मेहनत से और पूरे धन व जन बल से तैयार किया जाता है । आम तौर पर वे किसी घटना
विशेष पर पात्रों के भावों को अभिव्यक्त करते हैं । जिस तरह चंपू काव्य होता था,
उसी परंपरा में फ़िल्म गीत होता है । कई बार वह किसी सीक्वेंस में
एकाधिक पात्रों के बीच संवाद होता । उसके बोल दृश्य के बदलते क्रियाकलाप (ऐक्शन)
के हिसाब से लिखे जाते हैं । इस लिए छोटे से कलेवर में वह नन्हा सा एकांकी नाटक भी
होता है । जैसे: अच्छा तो हम चलते हैं /
फिर कब मिलोगे / जब तुम कहोगे ।
अजय ब्रह्मात्मज : फिल्मों में
ध्वनि के आगमन के साथ गीतों की आवश्यकता महसूस की गई । इसका व्यापक प्रभाव और
उपयोग दिखा । हिंदी फिल्मों के सफर में गीतों की गुणवत्ता समय के साथ बदलती रही
है । एक दौर ऐसा भी आया जब गीत को संगीत ने ढँक दिया । अभी फिर से पांचवे-छठे दशक
की तरह गीतों में प्रयोग हो रहे हैं । फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि गीतों की
साहित्यिकता कम हुई है ।
शशांक दुबे : हिन्दी
सिनेमा की आत्मा गीतों में ही बसी है । जब दर्शक सिनेमा हॉल से फिल्म देखकर बाहर निकलता है, तब न तो उसे कहानी याद रहती है न संवाद । याद रह जाता है तो फिल्म का
गीत-संगीत और यह गीत-संगीत महज उस तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि
रेडियो, सीडी और अन्य माध्यमों के जरिये यह अगली पीढ़ी को भी
अंतरित हो जाता है ।
2. सिनेमा
से स्वतंत्र इन गीतों के महत्व पर आपकी क्या राय है?
अरविंद कुमार : फ़िल्म गीत
का मर्म है, सीधी सच्ची बात । जितनी सीधी बात होगी, उतनी ही दूर तक वह
पहुँचेगी । अपनी आसान बोली में वे देश काल की सीमाएँ लाँघने में सक्षम होते हैं,
तभी हमारा फ़िल्म संगीत संसार के हर कोने तक, वहां भी जहाँ
हिंदी जानने वाले नहीं हैं, पसंद किया जाता है ।
अजय ब्रह्मात्मज : सिनेमा
भारतीय समाज का आधुनिकतम धर्म है । दर्शकों के अपने प्रिय गीत उन प्रिय भजनों की
तरह हैं,
जिन्हें वे अपने आराध्य के लिए गाते हैं । फिल्मी गीतों ने
लोकोक्ति और मुहावरों का भी रूप लिया है ।
शशांक दुबे : गीतों का
सबसे बड़ा महत्व यह है कि सिनेमा से बाहर निकलकर भी ये हमारी पिकनिकों, उत्सवों,
शादी-ब्याहों और पर्व-त्यौहारों में बारंबार सुने जाते हैं । इस
प्रकार ये गीत हमारे अवचेतन का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं ।
3. सिनेमा
के गीतों ने जनता की अभिरूचि को विकसित परिवर्धित या परिवर्तित करने में कैसी
भूमिका निभाई है?
अरविंद कुमार : सौभाग्यवश
हिंदी फ़िल्मों को ढेर सारे समर्थ कवियों का सहयोग मिला । बहुत पहले अपने को
महाकवि कहलाने वाले मधोक,
कवि प्रदीप, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी, प्रेम धवन, शैलेंद्र,
कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, आनंद बख़्शी, गुलज़ार, जावेद
अख़्तर आदि… बहुत लंबी सूची है ।
ऐसे कवियों द्वारा लिखित, कुशल
संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध, प्रभावशाली आवाज़ों के धनी
गायकों द्वारा उच्चरित और दसों रसों से सराबोर हिंदी फ़िल्म गीत दर्शकों को तृप्त
करने में सफल होते रहे हैं । कुछ गीतों को छोड़ दें, जिन में
भौंडापन होता है (यह कुत्सितता तथाकथित साहित्यिक कविताओं में भी पाई जाती है ),
फ़िल्म गीतों ने जनरुचि को सँवारा ही है ।
एक ग़लतफ़हमी यह है कि सुरुचि केवल
पढ़े लिखों या पंडित ज्ञानियों में ही होती है । हमारी अधिसंख्य आबादी, चाहे
वह दूरदराज़ के ग्रामीण हों, शहरी मज़दूर हों, या मध्यम वर्गीय सामान्य परिवार हों, सब में सौंदर्य
और भावुकता की एक आंतरिक भूख होती है । हो सकता है वे गहन साहित्यिक क्लिष्ट
शब्दावली न जानते हों । भावुक अनुभूतियों के लिए शब्दचातुर्य की आवश्यकता होती भी
नहीं है ।
अजय ब्रह्मात्मज : यह
व्यक्तियों के प्रभावग्रहण पर निर्भर है । हर व्यक्ति के दो-चार प्रिय गीत होते
हैं, जिन्हें वह अकेले होने पर गुनगुनाता है । गीतों से बौद्धिक विकास से
बौद्धिक विलास तक होता रहा है ।
शशांक दुबे : सिनेमाई
गीतों ने हमारी भाषा को गहरे से प्रभावित किया है,
"मेरे यार शब्बा खैर" और "सायोनारा" से
लगाकर "जय हो " और "मस्ती की पाठशाला" जैसे अनगिनत जुमले
फिल्मी गीतों की ही देन हैं ।
4. हिंदी
सिनेमा सौ वर्षों का सफ़र पूरा कर चुका है. सिनेमा और सिनेमा के गीतों की
विकासयात्रा को आप किस तरह से देखते हैं?
अरविंद कुमार : सिनेमा का सफ़र
तो सौ साल का हुआ है,
पर सवाक फ़िल्मों का, टाकीज़ का, सफ़र 1931 की ‘आलम आरा’ से अब
तक अस्सी ही पूरे कर पाया है । इंग्लिश की ही तरह पहली सवाक हिंदी फ़िल्म में गाने
रखे गए थे ।
अजय ब्रह्मात्मज : गीत हमेशा
फिल्मों की जरूरत पूरी करते रहे हैं । जैसी फिल्में,वैसे
गीत । गीतों की यात्रा को फिल्मों की यात्रा से अलग नहीं किया जा सकता ।
शशांक दुबे : इन सौ सालों
में संगीत ने मेलोडी युग भी देखा है और डिस्को युग भी; वाद्यों
की संगत भी की है और इलेक्ट्रोनिक साज़ों का भी साथ निभाया है । हसरत साहब के
शब्दों में कहें तो सिनेमा और संगीत के बीच का रिश्ता "सौ साल पहले मुझे
तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा" वाला है । आज भी यह सिनेमा की सबसे बड़ी
टेरिटरी है ।
5. हिंदी
सिनेमा के पुराने गीतों और आज के सिनेमा के गीतों में बुनियादी अंतर क्या है?
आप इसके क्या कारण मानते हैं?
अरविंद कुमार : पुराने गीतों
में सादगी होती थी । मुझे बहुत पुराने ज़माने के कुछ गीत याद आ रहे है ।
‘तेरे पूजन को भगवान, बना
मंदिर आलीशान । तुम को मुबारक हों ऊँचे महल ये (कुछ ऐसी ही पंक्ति थी) हम को हैं प्यारी
हमारी गलियाँ, हमारी गलियाँ’ । या सहगल के अमर गीत – ‘इक बंगला बने न्यारा’, ‘दुख के दिन अब बीतत नाहीं’
। पंकज मलिक के – ‘पनघट पर कन्हैया आता है, आ के धूम मचाता है’ जैसे गीतों के मुक़ाबले आज के गीत पेचीदा होते जा रहे
हैं । यह सब देश और समाज में आए बदलावों के अनुरूप हो रहा है । यह प्रक्रिया रोकी
नहीं जा सकती । रोकनी भी नहीं चाहिए ।
अजय ब्रह्मात्मज : बुनियादी
फर्क गीतकारों से आया है । पहले के गीतकार साहित्यिक और सांस्कृतिक रूप से अधिक
संपन्न होते थे ।
शशांक दुबे : पुराने गीतों
में शब्दों और मूल वाद्यों पर ज़ोर होता था, आज इलेक्ट्रोनिक वाद्यों के
हावी हो जाने का यह परिणाम है कि सरसरी तौर पर सुनते समय गीतों के शब्द पल्ले ही
नहीं पड़ते । भाषा के प्रति उपेक्षा बोध और हर काम के पीछे जल्दबाज़ी की प्रवृत्ति
ने गीतों को काफी नुकसान पहुंचाया है । बावजूद
इसके , दस प्रतिशत ही सही, अच्छे गाने
अब भी बन रहे हैं ।
6. क्या एक
गीतकार के सृजनकर्म का संघर्ष सिनेमा के निर्माण से जुड़े अन्य प्रकार के
सृजनकर्मों के संघर्ष से कमतर होता है? आप का किसी गीतकार या
किन्हीँ गीतकारोँ के सृजनकर्म से व्यक्तिगत परिचय रहा हो तो कृपया बताएँ ।
अरविंद कुमार : सौभाग्यवश मुझे
ढेर सारे फ़िल्म गीतकर्मियों से निकटतम संपर्क और परिचय का अवसर मिला । इंदीवर, गुलज़ार,
जावेद अख़्तर । इंदीवर और गुलज़ार के प्रस्फुटन का तो मैं साक्षी
रहा हूँ । लेकिन सब से निकट थे शैलेंद्र । वे जल्दी ही संसार से विदा हो गए,
इस लिए उनसे पारिवारिक घनिष्ठता कुल तीन साल चल पाई ।
लोग समझते हैं कि फ़िल्मी गीत लिखना
बेहद आसान होता होगा,
ऐसा है नहीं । फ़िल्म गीत रचना प्रक्रिया समझाए बग़ैर गीत लेखन की
दुरूहता को समझा नहीं जा सकता । मैं एक उदाहरण देता हूँ । एक शाम अचानक मैं
शैलेंद्र जी के घर पहुँच गया । उन दिनों गाइड के गीत बन रहे थे । उन्हें एक गीत की
सिटिंग में जाना था । देव आनंद से अनुमति लेकर मुझे भी वे साथ ले गए । वहाँ
निर्माता-अभिनेता देव आनंद थे, निर्देशक विजय आनंद थे,
संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के सहायक की हैसियत से राहुल देव
बर्मन थे । निर्माता-अभिनेता देव आनंद और निर्देशक विजय आनंद प्रस्तावित गीत के
दृश्य का विवरण पहले ही दे चुके थे - एक
क़दम के बाद दूसरा क्या होगा –नायक कहाँ होगा, नायिका कहाँ, उनके मनोभाव क्या होंगे, वे क्या करेंगे, सीनरी क्या होगी आदि । शैलेंद्र बोल
पहले ही लिख कर दे चुके थे । अब उस का स्वरबद्ध कच्चा ख़ाका तैयार था । उस रात हारमोनियम
पर बजा कर अपनी आवाज़ में गा कर सुनाते, हम सब सुनते । मेरी
भूमिका मूक दर्शक मात्र ही थी, पर मेरे चेहरे की
प्रतिक्रियाओं पर भी उन की आँखें रहतीं ।
जो भी हो, यदि निर्माता-निर्देशक-गीतकार-संगीतकार चौकड़ी को
वह पसंद आ जाता तो रिकार्ड कर लिया जाता, वरना फिर नए शब्द ।
यह क्रम चलता रहा जब तक बोल और धुन का लगभग पक्का ख़ाका तैयार नहीं हो गया ।
अजय ब्रह्मात्मज : गीतकारों का
योगदान महत्वपूर्ण होता है । गीतकार की प्रतिभा का सदुपयोग फिल्मकार की योग्यता
और पसंद से तय होता है । इन दिनों गीतकार फिल्मों के मनोभाव को शब्दों में व्यक्त
करने से अधिक उसके मूल्यभाव बढ़ाने पर ध्यान देते हैं । उन पर कैच लाइन लिखने का
दबाव रहता है,जो कॉलर ट्यून बन सके ।
शशांक दुबे : हमारे यहाँ नायक, नायिका,
निर्देशक, संगीतकार और गायक के मुक़ाबले गीतकार
को यश, धन और ग्लेमर कम ही मिल पाता है । संभवतः इसका कारण
यह है कि सिनेमा के आर्थिक पक्ष से ऐसे लोग जुड़े हैं, जिन्हें
भाषा और संवेदना से कोई मतलब नहीं ।
7. हिंदी
सिनेमा के गीतों के साहित्यिक महत्व को नकारा जाता रहा है, क्या इस विषय पर आप अपनी राय देना चाहेंगे?
अरविंद कुमार : साहित्यिक
होने का मतलब दुरूह होना कतई नहीं है । मैंने आगे कुछ गीतों के उदाहरण दिये हैं ।
उन गीतों के बोल पढ़ने पर फ़िल्मी गीतों की साहित्यिकता अपने आप समझ में आ जाती है
।
अजय ब्रह्मात्मज : नकारने की
बात तो तब की जाये कि जब उनपर कभी विचार किया गया हो, जब
कभी उनकी चर्चा ही नहीं की गयी तो इनकार और स्वीकार की बात ही अलग हो जाती है ।
हिंदी साहित्य में सिनेमा को लेकर एक उदासीनता रही है और कहीं न कहीं साहित्य वाले
जो शुद्धता प्रेमी लोग हैं, उन्हें लगता है कि साहित्य जो
रचा जा रहा है वही श्रेष्ठ होता है बाकी किसी और चीज़ में साहित्य नहीं होता ।
लेकिन अब समय आ गया है कि अब इनपर विचार किया जाए और इन गीतों के साहित्यिक महत्व
पर बात की जाए , चाहे साहित्य में एक अलग खंड बनाकर ही इनपर
बात क्यों न हो । गीतों को साहित्य में जगह मिलनी चाहिए । कुछ गीत तो अपने समय के
मनुष्य के संघर्ष और सुख की सशक्त अभिव्यक्ति हैं ।
शशांक दुबे : यदि साहित्य
का मतलब मात्र लेखकों द्वारा लिखी और उन्हीं की बिरादरी के द्वारा पढ़ी और सराही जानेवाली
कहानियों,
कविताओं और लेखों से है, तो फिल्मी गीत
साहित्य नहीं हैं । लेकिन यदि साहित्य का मतलब ऐसी रचनात्मक विधा से है, जो मन-आँगन को झकझोर कर रख दे, तो फिल्मी गीत
निश्चित ही साहित्य हैं ।
8. सिनेमा
के कुछ गीतों पर आप यहाँ चर्चा करना चाहेंगे?
अरविंद कुमार : हिन्दी सिनेमा
के गीतों का अथाह सागर है । मेरे प्रिय गीत बहुत सारे हैं । बानगी के लिए आवारा के
शैलेंद्र रचित तीन गीतों का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा । पहला गीत है -
पतिवरता सीता माई को
/ तू ने दिया बनवास / क्यों न फटा धरती का कलेजा / क्यों न फटा आकाश / जुलुम सहे
भारी जनक दुलारी / जनक दुलारी राम की प्यारी / फिरे मारी मारी जनक दुलारी / जुलुम
सहे भारी जनक दुलारी / गगन महल का राजा देखो / कैसा खेल दिखाए / सीप का मोती, गंदे
जल में / सुंदर कँवल खिलाए / अजब तेरी लीला है गिरधारी / जुलुम सहे भारी जनक
दुलारी ।
सशक्त मर्मस्पर्शी फ़िल्मांकन और गीत
के भाव दर्शकों की संवेदनाओं को सीधा छूते हैं । दिलों पर गहरी चोट करते और
पीड़िता के प्रति उनकी सहानुभूति जगाते हैं । जो कुछ गीत में सीता के लिए कहा जा
रहा है,वह सीधे राम पर चोट कर रहा है । उसे अन्याई क़रार दे रहा है । सच कहें तो
यही गीत ‘आवारा’ फ़िल्म का मर्म था ।
आवारा का दूसरा गीत-
आवारा हूँ / गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ / घरबार नहीं, संसार
नहीं, मुझ से किसी को प्यार नहीं/ उस पार किसी से मिलने का
इकरार नहीं / सुनसान नगर, अनजान डगर का प्यारा हूँ / आवारा
हूँ ।
आवारा का मेरा तीसरा प्रिय गीत है – तेरे
बिना - आग - ये चाँदनी, तू आजा / तेरे बिना - बेसुरी
बाँसरी, ये मेरी ज़िंदगी - दर्द की रागिनी / तू आजा, तू आजा ।
अंत में ‘श्री चार सौ बीस’ के एक गीत का उल्लेख करना चाहूँगा, यह गीत उभरते
भारत का प्रतीक बन गया था- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी / सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है
हिंदुस्तानी ।
अजय ब्रह्मात्मज : अनेक गीत हैं,जो
मेरी मानसिक दशाओं को समय-समय पर अभिव्यक्त करते रहे हैं । ‘मुगले-आज़म’ के गीत, पुरानी ‘देवदास’ के गीत मुझे बेहद पसंद हैं । एक समय में
फिल्मों की कव्वालियां बहुत पसंद थीं, जिनकी परंपरा ही आज खो गयी है । हाल की
फिल्मों में ‘थ्री इडियट्स’ का “बहती हवा सा था वो” या ‘हज़ारों
ख्वाहिशें ऐसी’ का “बावरा मन देखने चला
इक सपना” आदि गीत अच्छे लगते हैं ।
शशांक दुबे : जब तक हमें
"चल उड़ जा रे पंछी के अब ये देस हुआ बेगाना", "राही मनवा दुख की चिंता क्यूँ सताती है, दुख तो अपना
साथी है", "किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार",
"संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम
क्या पाओगे", "तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूँ", "कुछ तो लोग कहेंगे,
लोगों का काम है कहना", "गुलमोहर गर
तुम्हारा नाम होता, मौसम-ए-गुल को हँसाना भी हमारा काम होता ",
"खिलते हैं गुल यहाँ, खिलके बिखरने को",
"कल तो सब थे कारवां के साथ-साथ, आज कोई
राह दिखलाता नहीं, कोई सागर दिल को बहलाता नहीं",
"तेरी ज़ुल्फों से जुदाई तो नहीं मांगी थी, क़ैद मांगी थी रिहाई तो नहीं मांगी थी" जैसे गीत सुनने को मिलते रहेंगे, हमारा मन-आँगन महकता रहेगा ।
प्रस्तुति : प्रियंका
[*अप्रैल-मई 2014 में सभी सहभागियों से ईमेल द्वारा प्राप्त प्रश्नोत्त्तर पर आधारित ]
#Songs of Hindi Cinema, Literary importance of Hindi film Songs, Interviews, Discussions, Arvind Kumar Ajay Brahmatmaj, Shashank Dube, Manager Pandey, Ajeet Kumar, Hindi literature critics, Hindi Poetry, Lyricist Shailendra, Relation of literature and Cinema, Research Work
#Songs of Hindi Cinema, Literary importance of Hindi film Songs, Interviews, Discussions, Arvind Kumar Ajay Brahmatmaj, Shashank Dube, Manager Pandey, Ajeet Kumar, Hindi literature critics, Hindi Poetry, Lyricist Shailendra, Relation of literature and Cinema, Research Work
Thanks Priyanka ji , for sharing your work !
ReplyDeleteIt's my pleasure. Thanks.
Delete