Saturday 11 February 2017

यह कैसा ‘दंगल’ !!

हिन्दी फिल्म दंगलअपने निर्माण की घोषणा के साथ ही चर्चित हो गयी थी । इसका एक कारण यह था, कि फिल्म के मुख्य अभिनेता की भूमिका आमिर खान निभाने जा रहे थे, और दूसरी बात यह थी कि यह फिल्म  भारत के परंपरागत खेल कुश्तीपर आधारित होने वाली थी ।  2015 की शुरूआत में यह खबर भी आने लगी थी कि फिल्म असल जिंदगी के पहलवान रहे महावीर फोगट के उनकी बेटियों को पहलवान बनाने के संघर्ष पर आधारित है ।
इस फिल्म को आमिर खान ने अपनी पत्नी किरण राव और यूटीवी के सिद्धार्थ राय कपूर के साथ मिल कर प्रोड्यूस किया है । आमिर खान अपनी फिल्मों के प्रमोशन करने में सबसे माहिर अभिनेताओं में गिने जाते हैं । प्रभावी रणनीति के साथ इस फिल्म का भी खूब प्रमोशन हुआ । आमिर के इस फिल्म के लिए काफी वजन बढ़ाने और फिर भारी वर्क आउट के सहारे वजन घटाने को भी फिल्म के प्रमोशन का हिस्सा बनाया गया था ।
इस फिल्म को रिलीज हुए (23 दिसंबर 2016) अब डेढ़ महीने से अधिक बीत चुका है । इसने रिकार्डतोड़ कमाई की है । फिल्म ने अपेक्षानुरूप खूब तारीफ भी बटोरी है । इसकी समीक्षा पर महिला सशक्तिकरण और पुरूषवादी मानसिकता को चुनौती देने वाले विषय पर बनी फिल्म के तौर पर की जा रही है । कुछ समीक्षकों ने सूक्ष्मता से विवेचना करते हुए इस फिल्म में स्त्री सशक्तिकरण को एक पुरूष या पिता के द्वारा लादे गये सशक्तिकरण की संज्ञा दी है । ये सारी विवेचनाएँ फिल्म की वास्तविक आधार कथा पर केन्द्रित हैं ।
मैं इस फिल्म के निर्माण और प्रस्तुति से जुड़े कुछ पहलुओं पर बात करना चाहती हूँ । मसलन क्या यह फिल्म ईमानदारी से बनाई गयी है? क्या इस फिल्म के निर्माण में कुछ नयापन है? क्या इस फिल्म को उत्कृष्ट फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है?
इस फिल्म का सकारात्मक पक्ष यह है कि रेसलिंग को वास्तविक दिखाने के लिए, बहुत मेहनत की गयी है । इस फिल्म में उम्र के हिसाब से आमिर खान की देहयष्टि में आए बदलाव को ठीक से दिखा सकने के प्रयास में भी कामयाबी मिली है । गीता-बबीता के बचपन का अभिनय जिन लड़कियों ने किया है, उन्होंने बेहतरीन काम किया है । युवा गीता-बबीता की भूमिका निभाने वाली लड़कियों ने बहुत मेहनत की है । साक्षी तंवर सहित सहयोगी भूमिकाएँ निभाने वाले कई कलाकारों ने अपने हिस्से का किरदार अच्छे से निभाया है । लेकिन ये सब ‘दंगल’ को एक औसत फिल्म से अधिक का दर्जा दिला पाने में समर्थ नहीं हैं ।
दरअसल यह फिल्म निराश अधिक करती है, इसलिए भी क्योंकि इससे बेहतर की अपेक्षा थी । यह बाकी फ़ॉर्मूला फिल्मों से अलग नहीं है । स्थितियां-परिस्थितियां सब ‘बनी-बनाई’ हैं । दर्शक पहले से यह जान लेता है, कि आगे क्या होगा ! संवाद भी कई मौकों पर बिल्कुल बनावटी लगते हैं । सिनेमा संयोजन की दृष्टि से भी ‘दंगल’ आमिर खान की कुछ पिछली फिल्मों ‘तारे ज़मीन पर’ या थ्री इडियट’, जो व्यावसायिक रूप से सफल रहीं थी, से भी पिछड़ी हुई दिखाई देती हैं ।
इस फिल्म से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रश्न नैतिकता का भी है । जब भी आप किसी बायोपिक पर काम करते हैं, तो आपका दायित्व होता है, कि चीज़ें प्रमाणिकता के साथ सही-सही दिखा सकें । कल्पना का सहारा,बेशक लें, लेकिन उतना ही जो वास्तविकता को विकृत नहीं करती हो । इस फिल्म के तीन ऐसे पात्र हैं, जो राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी रहे हैं । ये वास्तविक जीवन के चरित्र हैं । इसे प्रचारित भी इसी रूप में किया गया । ऐसे में इन पात्रों से बावस्ता कुछ चरित्रों को बिना वज़ह नेगेटिव करैक्टर के रूप में दिखाना, क्यूंकि सिनेमा की वास्तविक सफलता के लिए एक निगेटिव करैक्टर की ज़रूरत महसूस की गयी, घटिया स्तर का नैतिक अपराध है । बड़ी संवेदनहीनता है । वास्तविक जीवन में गीता बबीता के नेशनल लेवल कोच रह चुके पी.आर. सोंधी की पीड़ा का अनुभव कर सकना कठिन है, जिनकी इस फिल्म से छवि खराब हुई है । उनका कहना है कि महावीर को हीरो बनाया गया है, इससे उन्हें कोई समस्या नहीं है, लेकिन इसके लिए कोच को या किसी को भी अकारण नेगेटिव दिखाना गलत है । फिल्म के अंतिम दृश्य में महावीर को कोच द्वारा एक कमरे में बंद करने वाले दृश्य को भी उन्होंने आधारहीन कहा है ।  
कुल मिलकर पूरा मामला व्यावसायिकता का ठहरता है । खुद वास्तविक खिलाड़ियों ने भी अपने ही जीवन पर बनने वाली फिल्म के परफेक्शन का ध्यान नहीं रखा । शायद वे रख भी नहीं सकते थे, क्योंकि सिनेमा की बारीकियों को वे नहीं जानते होंगे । जिन लोगों को इन सबकी समझ थी, उन्हें ये पता था कि उन्हें क्या भुनाना है और भुनाने के लिए उन्हें जो-जो जरुरी लगा उन्होंने किया । इस भ्रम में रखते हुए कि ये कहानी पूरी की पूरी असली है, और तकनीकी रूप से इसे प्रेरित कथा बताना, एक किस्म की महीन चालाकी है ।
फिल्म कंटेट के मामले में भी पिछड़ी हुई है । शुरू में दृश्य भागते नज़र आते हैं, मानो जल्दी-जल्दी सब कह देना है, दिखा देना है, और कुश्ती के मैचों पर ही पूरा का पूरा फोकस करना है । कुश्ती के उन मैचों को, जो यू-ट्यूब पर भी उपलब्ध हैं, लम्बे और नाटकीय अंदाज में खींचना, और कई अन्य नाटकीय विस्तार इस फिल्म में अनावश्यक रूप से आये हैं ।
हमें यह समझ ही लेना चाहिए कि आमिर खान के लिए व्यावसायिकता पहले आती है, और सिनेमा के प्रति निष्ठा बाद में । दुर्भाग्य से लोगों के बीच इससे उलट धारणा मौजूद है । इस फिल्म से एक बार फिर यह साबित हुआ कि हिंदी फिल्म उद्योग वाले, किसी के जीवन पर उम्दा फिल्में बना सकने में बहुत पीछे हैं!
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1. कोच पी.आर. सोंधी की नाराजगी से जुड़ी बीबीसी की खबर का लिंक :दंगल ने की छवि ख़राब : गीता फोगाट के कोच
2. पंजाब केसरी द्वारा सोंधी के लिए गये इंटरव्यू का लिंक : फिल्म 'दंगल' की कहानी को लेकर गीता फोगट के कोच ने जताया ऐतराज

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