‘द वायर हिन्दी’ पर प्रसारित होने वाले अपने कार्यक्रम ‘जन की बात’ की दूसरी कड़ी में विनोद दुआ ने एक ऐसा प्रसंग सुनाया जो कुछ देर के लिए स्तब्ध कर देता है ! हमारे समय के युवा भी अपनी हमउम्र स्त्रियों के प्रति किस तरह की मानसिकता रखते हैं, उसे समझने में यह प्रसंग दुखद होते हुए भी मददगार है । विनोद दुआ द्वारा सुनाये गए इस प्रसंग को महत्वपूर्ण मानते हुए मामूली संपादन के साथ ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ उद्धृत कर रही हूँ ।
“पिछले दिनों एक किस्सा सुनने में आया कि दिल्ली के एक नज़दीक के प्रदेश में
एक लड़कियों का मेडिकल कॉलेज है और एक लड़कों का कॉलेज है। तो जो लड़के थे कॉलेज के
वो मेडिकल कॉलेज की लड़कियों को छेड़ते थे। ईव टीज़िग करते थे। वो लड़कियाँ बहुत
परेशान थीं। एक दिन एक लड़की हिम्मत करके लड़कों के झुंड के पास पहुँच गयी और बोली –
“कि भई आपलोग हमें छेड़ते क्यों हो? ये छेड़ना
क्या होता है? कितना आउटडेटिड आईडिया है ! हम जानते हैं कि
आपलोग हमें पसंद करते हो तो ये छेड़ना क्या हुआ ! हमसे दोस्ती कर लो। वी आर
फ्रेंड्स।”
लड़के
थोड़ा चकरा गये क्योंकि इस निगाह से, इस चश्मे से
कभी लड़कियों को या औरतों को देखा ही नहीं था! जिस चश्मे से देखने की उनको आदत थी,
और ज्यादातर हिन्दुस्तानी मर्दों को आदत है, वो
‘निजी रिश्तों का चश्मा’ है। उनकी
निगाह में लड़कियाँ या औरतें या तो बहन हों, या बेटी हों,
या माँ हों, या भाभी हों या बीवी हों, या कोई और रिश्ता, निजी रिश्ता। माने जबतक वो किसी
निजी रिश्ते को बीच में नहीं लाते, उन्हें नहीं मालूम कि
लड़कियों से कैसे रिलेट किया जाए, किसतरह से बात की जाए।
अगले
दिन फिर वो लड़कियाँ बाहर निकलीं, वही लड़के
खड़े हुए थे। वो लड़की उनके पास गयी और बोली कि फिर क्या फैसला किया आपने?
लड़के
बोले – “मैडम हमने बहुत... सोचा।
हम
इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि हम....... छेड़ेंगे!”
वजह
यही थी कि और कोई चश्मा आता नहीं, जिस निगाह
से वो देख सकें। कभी इंसान की तरह रिलेट करना सीखा ही नहीं ! हमेशा दबा कर रखा है
घर में लड़कियों को। पैट्रीआर्कल सिस्टम में जहाँ बाप, बड़ा
भाई प्रोटेक्टर होता है। लेकिन इक्वल, बराबरी का रिश्ता
उन्हें आता नहीं है।”
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