Friday, 8 December 2017

सीक्वल के नाम पर प्रपंच है 'फुकरे रिटर्न्स'

गंभीर फ़िल्मों के अलावा हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्मों का भी अपना महत्व होता है । 2013 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘फुकरे’ एक ऐसी ही फ़िल्म थी । फ़िल्मकार ने इस फ़िल्म में दिल्ली की संस्कृति और ख़ास तौर पर वहाँ पलने-बढ़ने वाली निम्न मध्यवर्गीय युवा पीढ़ी की विशेषताओं और खामियों का बखूबी इस्तेमाल किया था । बिना वल्गेरिटी परोसे इस फिल्म ने थोड़े यथार्थ और अधिक कल्पना के मिश्रण से जो कमाल किया था, उसे दर्शकों ने ख़ूब पसंद भी किया था ।
पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी सिनेमा के सीक्वल्स बनाने की परंपरा खूब विकसित हुई है । सफल मनोरंजक फ़िल्मों के साथ ऐसे प्रयोग अधिक हो रहे हैं । अक्सर ऐसी फ़िल्में दर्शकों पर सफलता पूर्वक आजमा लिए गये फ़ॉर्मूले को अधिक भुना कर पैसा बनाने का साधन भर होती हैं । दुखद यह है कि इस शुक्रवार (8 दिसम्बर) प्रदर्शित हुई फ़िल्म फुकरे रिटर्न्सभी इसका अपवाद नहीं है ।  
  ‘फुकरे’ देख चुके जिन दर्शकों को चार वर्ष बाद रिलीज हो रही ‘फुकरे रिटर्न्स’ का ट्रेलर देखकर फिर से अच्छे मनोरंजन की अपेक्षा रही होगी, उन्हें निराश होना पड़ सकता है । ‘फुकरे’ को देखते हुए, दर्शकों ने महसूस किया होगा कि इसमें एक भी दृश्य ऐसा नहीं था, जिसे आप जबरन ठूँसा गया दृश्य कह सकते थे । ‘फुकरे’ की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सहजता और तारतम्यता थी, वह ‘फुकरे रिटर्न्स’ में लगभग ग़ायब है । फिल्म कई बार बहुत उबाऊ लगती है । इसमें कुछ पात्र और कुछ दृश्य भी जबरन ठूँसे हुए लगते हैं । इसके दृश्यों में बाघों और सांप के जो प्रसंग जोड़े गये हैं, वह भी अनावश्यक हैं, और इनका फिल्मांकन भी संवेदनशीलता के साथ नहीं हुआ है । ‘फुकरे’ में सभी फुकरों को लगभग बराबर की तवज्जो दी गयी थी, लेकिन इनमें से ‘चूचा’ नामक पात्र को मिली अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रियता को शायद भुनाने के लिए ही, इस बार पात्रों के महत्व को लेकर संतुलन का ध्यान नहीं रखा गया है ।
मेरे खयाल से सीक्वल में फुकरेकी सृजनात्मकता को विस्तार देने के लिए, जितनी मेहनत और एकाग्रता की ज़रूरत थी, निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा ने उसमें भारी कोताही बरती है । बहुत संभव है कि भारी मुनाफे का सौदा समझ कर इस फिल्म पर जमकर पैसा लगाने वालों का भी निर्देशक पर दबाव रहा होगा । मुझे लगता है कि मृगदीप क्रियेटिव हैं, और संवेदनशील भी लेकिन इस फ़िल्म के बाद यदि वे अपने पतन को महसूस नहीं कर पाए तो बेहतर कर पाने की उनकी संभावना और भी कमज़ोर होती चली जाएगी।
          ‘फुकरे’ में एक बेहद सुन्दर गीत भी था ‘अम्बरसरिया मुंडया वे’। वो गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर है, लेकिन ‘फुकरे रिटर्न्स’ का कोई गाना भी प्रभावशाली नहीं है । ऐसा लगता है कि उम्दा कलाकारों के लिए भी अच्छे अभिनय का अवसर मुहैया करा पाने में यह फ़िल्म असफल रही है। कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि यह फ़िल्म एक साथ लगभग सभी मोर्चों पर कमज़ोर रह गयी है। संभव है कि ‘फुरकरे रिटर्न्स बॉक्स ऑफिस पर अच्छी खासी कमाई कर ले, लेकिन इससे यह सच बदल नहीं जाता कि यह फ़िल्म दर्शकों के साथ एक प्रपंच से अधिक कुछ नहीं है ।
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[9 दिसम्बर 2017 को सम्पादित शीर्षक के साथ 'यूथ की आवाज़' (YKA) पर भी प्रकाशित]

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