मेरी मातृभाषा पंजाबी है। घर में पंजाबी
ही बोली जाती है। लेकिन चूंकि मेरा जन्म दिल्ली में हुआ और यहीं के स्कूलों में
पढ़ाई- लिखाई हुई तो, पंजाबी भाषा के लिए प्रचलित
गुरूमुखी लिपि का ज्ञान मैं हासिल नहीं कर सकी। यानी बचपन से ही पंजाबी
बोलती-समझती तो रही लेकिन पंजाबी पढ़-लिख नहीं पाती!
कुछ साल पहले अपनी रूचि और ललक के बल पर
पंजाबी लिखना-पढ़ना सीखने की कोशिश की। कुछ दिन की ही मेहनत के बाद पंजाबी पढ़ना आ
गया। अब थोड़ा धैर्य रख कर कोशिश करने पर पंजाबी लिखावट पढ़ लेती हूँ, लेकिन लिखना अब तक भी नहीं सीख पाई हूं। इसका बड़ा कारण निश्चित तौर पर
मेरा आलस्य ही है। सोचती हूँ कि काश बचपन में ही किसी ने सिखा दिया होता तो आज
इतना जूझना नहीं पड़ता और पंजाबी साहित्य से भी बराबर जुड़ पाती! फिर भी इस बात की
बेहद खुशी है कि माता-पिता के ज़रिये दिल्ली में रहते हुए भी हम लोग अपनी मातृभाषा
से कटे नहीं, हमेशा जुड़े रहे।
मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानती हूँ, जो दिल्ली या अन्य बड़े शहरों में पलायन करके आए तो अपनी मातृभाषा भी पीछे
ही छोड़ते चले आए। उसी का परिणाम है कि बहुत से लोग अपनी मातृभाषा जानते ही नहीं
हैं! हिन्दी-इंग्लिश ही उनके संपर्क और संप्रेषण की भाषा है। इसी से उनका काम चल
जाता है। लेकिन अपनी मातृभाषा का ज्ञान न होना ऐसे लोगों को अपनी संस्कृति अपने
लोक साहित्य और अपनी ही मिट्टी से दूर करता है। इसलिए बेहद ज़रूरी है कि
हिन्दी-इंग्लिश के साथ ही आप अपनी मातृभाषा भी बोलें और अपनी आने वाली पीढ़ियों को
भी इससे जोड़े रखें।
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