पंजाबी
का एक बेहद खूबसूरत और प्रसिद्ध लोकगीत है -'साड्डा
चिड़ियां दा चम्बा वे बाबुल असां उड़ जाना'। बेटियां शादी के
बाद अपने पिता के घर से विदा होकर जब पति के घर जाती हैं, उस
समय यह गीत गाया जाता है। विवाह समारोह में अक्सर यह गीत बजता है और इसे सुन सुन
कर रोने वाले लोगों को देख-देख कर मैं बड़ी हुई हूं।
कल
यूट्यूब चैनल 'हिन्दी कविता' पर इसे
सुनने का मौका मिला। दरअसल कल ही यह जाना कि इस लोकगीत को आधार बनाकर 'पाश' ने भी 'चिड़ियाँ दा चंबा'
शीर्षक से एक कविता लिखी थी।
हालांकि
पाश की यह कविता मुझे पहली बार सुनते हुए ही बहुत मर्मस्पर्शी और अलग लगी, लेकिन इसका अर्थ समझने के लिए मुझे इसे पांच-सात बार और सुनना पड़ा। तब भी
जो समझ आया ज़रूरी नहीं कि वही सही समझ हो। कविता का असली मर्म तो कविता की
बारिकियों को समझने वाले लोग ही बेहतर बता सकते हैं।
दरअसल
मुझे यह कविता इसलिए भी अलग लगी कि पाश ने लड़कियों की विदाई के इस लोकगीत का जो
यथार्थवादी पाठ इस कविता में किया है, वह बेहद
प्रभावित करने वाला है। लोकगीत में लड़कियों को चिड़िया की संज्ञा देते हुए कहा
गया है कि विवाह होगा तो यह चिड़िया बाबुल के घर से एक लंबी उड़ान भरकर दूर देश
चली जाएगी। लेकिन पाश इस कविता के माध्यम से कह रहे हैं कि ऐसा कुछ नहीं होगा।
लम्बी उड़ान भरने का सुख उसके हिस्से में ही नहीं है। वह एक जगह से उड़ाकर दूसरी
जगह एक पिंजरे में कैद कर दी जाएगी और उसका पूरा जीवन उसी पिंजरे में निकल जाएगा!
स्त्री जीवन का एक बड़ा मार्मिक यथार्थ इस कविता में व्यक्त हुआ है।
प्रियंका
सेतिया की आवाज़ में प्रसिद्ध लोकगीत का यह मुखड़ा और पाश की कविता दोनों को सुनना
सच में बहुत करूणा से भर देने वाला है।
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