कई
फिल्मकारों और साहित्यकारों ने अपनी फिल्मों और रचनाओं के माध्यम से इस बात की ओर
बार-बार ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि बेसहारा औरतों और बच्चों के लिए चलाई जाने
वाली संस्थाओं और सुधारगृहों की आड़ में अक्सर इनके शारीरिक और मानसिक शोषण का दिल
दहला देने वाला धंधा फलता-फूलता रहता है।
अनाथ
बच्चों,
मजबूर बेसहारा औरतों और आर्थिक हैसियत में बहुत पिछड़े हुए
नाबालिगों या स्त्रियों के कल्याण का मुखौटा लगाकर एक ओर मसीहा बनने का अवसर मिलता
है तो दूसरी तरफ इन्हें ही परोसकर और इन्हीं लोगों के शोषण से अकूत पैसे, ताकत और वासना पूर्ति के जुगाड़ किए जाते हैं। सरकारी संस्थाओं की हालत भी
बेहद बद्दतर है। कई फिल्मों में तो यह भी दिखाया गया है कि जेल में बंद महिला
कैदियों को बड़े-बड़े अफसरों, नेताओं और रसूखदारों के आगे
परोसा जाता है। ऐसी महिलाएं और ऐसे बच्चे सॉफ्ट और सेफ टारगेट होते हैं। ये इतने
बेबस और समाज से अलग-थलग होते हैं कि इनके विरोध या विद्रोह का खतरा नहीं के बराबर
होता है और यदि किसी तरह इस तरह की बात बाहर आ भी जाती है तो अक्सर किसी का कुछ
नहीं बिगड़ता क्योंकि ऐसे मामलों में छोटे से लेकर बड़े कर्मचारियों और मंत्रियों
तक की सीधी संलिप्तता होती है और इसलिए ये सभी एक-दूसरे की मदद करते हैं। ये सिर्फ
फिल्मीं बातें नहीं हैं, बल्कि कड़वी हकीकत है, ये बात अलग है कि इस तरह की घटनाओं के प्रति समाज की मुख्यधारा के कथित
शिष्ट लोगों को कभी कोई बहुत सरोकार नहीं होता!
मुज़फ्फरपुर
बालिका गृह में नाबालिगों के साथ लगातार हो रहे यौन उत्पीड़न की घटनाओं का जब
खुलासा हुआ और मीडिया ने इसे बार-बार उठाया तब आम लोगों में इस मुद्दे को लेकर
आक्रोश दिखा। इसके कुछ ही दिन बाद हाल ही में देवरिया में भी इसी तरह की घटना की
बात सामने आई है। कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि सिर्फ मुजफ्फरपुर और देवरिया ही
नहीं देश के लगभग हर इलाके में इस तरह की अधिकांश संस्थाओं में यही सब हो रहा
होगा। अभी जिस तरह का आक्रोश उठ रहा है वह कुछ दिन में शांत हो जाएगा और यह
सिलसिला चलता रहेगा। इस आक्रोश की सही दिशा यह है कि इस तरह की देशभर की सभी
सरकारी गैर-सरकारी संस्थाओं की कड़ी जांच करवाई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए की
नियमित रूप से इस तरह की जांच और निगरानी की जाए। यह आम लोगों की भी ज़िम्मेदारी
होनी चाहिए कि वे अपने आसपास की ऐसी संस्थाओं की खोज-खबर लेते रहें और नियमित जांच
और निगरानी की प्रक्रिया से भी सरोकार रखें। बेसहारा और मजबूर लोग भी इसी समाज का
हिस्सा हैं और हम अपने समाज के भीतर उनके उत्पीड़न के बेखौफ अड्डे तैयार होने नहीं
दे सकते!
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