दिल्ली
कावड़ियों को सर आँखों पर बिठाती रही है। कांवड़ यात्रा शुरू होने से महीनों पहले
उनके आराम के लिए जगह-जगह पंडाल बनने शुरू हो जाते हैं। सावन के महीने में दिल्ली
की लगभग हर गली हर नुक्कड़ पर कांवड़ यात्रियों के लिए विश्राम शिविर, भंडारे वगैरह के आयोजन होते रहते हैं।
इतना
मान-सम्मान इन कावंड यात्रियों को इन दिनों मिलता है, जिनके इनमें से अधिकांश पूरे जीवन हक़दार नहीं हो सकते! इसलिए ऐसे अवसरों
का लाभ लुच्चे-लफंगे, वेल्ले लोग खूब उठाते हैं। टोलियाँ
बना-बना कर ये भी कांवड़ियों का चोला ओढ़कर निकल पड़ते हैं या कांवड़ियों की
टोलियों में शामिल हो जाते हैं। इस तरह होता यह है कि कुछ सज्जन श्रद्धालुओं की
तुलना में उन्मादी और उत्पाती लोगों का एक बड़ा काफिला कांवड़ियों के लिवास में चल
रहा होता है। इनमें से कई समूह न सिर्फ तमाम ट्रैफिक और सुरक्षा नियमों को ताक पर
रख देते हैं, बल्कि छेड़खानी और मारपीट तोड़-फोड़ का जैसे
लाइसेंस लिये घूमते हैं! लोगों की असुविधा का ध्यान रखे बगैर लाउडस्पीकर और साउंड
बॉक्स लगाकर विभिन्न पड़ावों पर और रास्ते भर भी इनका नाचना-गाना चलता रहता है।
इनकी हरकतों से ट्रैफिक में भारी दिक्कत आती है और सामान्य लोग बेबस और सहमे हुए
नजर आते हैं।
धर्म, संस्कृति और परंपरा के नाम पर इनकी गुंडागर्दी को क्यों चलने दिया जाना
चाहिए? हर साल ऐसी घटनाएँ क्यों दोहराने की इजाजत दी जाती है?
इस तरह की अप्रिय और बेहद असुविधाजनक स्थिति से निपटने के लिए
ज़रूरी गाइडलाइन्स क्यों नहीं बनाई जाती या पालन की जाती? इस
तरह की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए दुरुस्त सुरक्षा प्रबंध क्यों नहीं किये जाते?
उपद्रवी कांवड़ियों की पहचान कर उन्हें सलाखों के पीछे क्यों नहीं
पहुँचाया जाता?
धर्म
की आड़ लेकर की जाने वाली ऐसी उदंडता को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए!
No comments:
Post a Comment