Saturday 8 September 2018

वक्त काटने की चीज़ नहीं है सिनेमा

हम कल रिलीज़ हुई फिल्म गली गुलियाँदेखने गये थे। इस फर्स्ट डे फर्स्ट शो में हम दो लोगों के अलावा छः और लोग थे, यानी लगभग डेढ़ सौ लोगों की क्षमता वाले हॉल में लगभग 140 सीटें खाली थीं। इस तरह का अनुभव पहली बार नहीं हुआ है। हैदराबाद के सिनेमा घरों में इससे पहले भी हमने कुछ ऐसी फिल्में देखी हैं, जिन्हें देखने के लिए इससे भी कम लोग पहुँचे थे, और इससे भी अधिक सीटें खाली थीं। लेकिन कल पहली बार मुझे मल्टिप्लैक्स कर्मचारियों के एक अजीब किस्म के अनुरोध का सामना करना पड़ा। हुआ यह कि जब फिल्म 25-30 मिनट बीत चुकी थी, और हम उससे पूरी तरह जुड़ चुके थे, तब कुछ कर्मचारी हमारे पास आए और उनमें से एक ने कहा : ‘Ma’am because very few people watching this movie, so can you shuffle to any other movie?' यह सुनकर मुझे बड़ा अचम्भा हुआ, क्यूंकि मैंने कभी इस तरह के किसी प्रस्ताव की कल्पना तक नहीं की थी। खैर मैंने उससे दृढ़तापूर्वक कहा : No! thank you. We have paid and come for this movie. शुक्र था कि उसने मुझ ही से पूछ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली और हॉल में बैठे बाकी लोगों से यही सवाल पूछने की उसकी हिम्मत नही हुई या उसने ज़हमत नहीं उठाई। जो लोग फिल्में पसंद करके व प्लान करके देखने जाते हैं, वे इस तरह के प्रस्ताव भर को अपनी तौहीन समझ बैठें तो कुछ ग़लत नहीं होगा।
मुझे लगता है कि आज भी इस सोच से बहुत सारे फिल्मकार, सिनेमा हॉल वाले और ख़ुद कई दर्शकभी इत्तेफाक रखते हैं कि फिल्में समय काटने का माध्यम भर हैं, यानी आँखों के आगे किसी कहानी पर फिल्माए गये ठीक-ठाक सीन चलते रहें और कानों तक समझ में आने वाले डायलॉग पहुँचते रहें तो वक्त कट ही जाएगा! जबकि हक़ीकत यह है कि सिनेमा का असली दर्शक वक्त काटने नहीं, वक्त निकालकर सिनेमा देखने पहुँचता है।
अब फिल्म पर आती हूँ गली गुलियाँका ट्रेलर पिछले हफ्ते ही देखा था। ट्रेलर देखकर फिल्म देखने की इच्छा हुई, दूसरा कारण यह रहा कि फिल्म में मनोज वाजपेयी, रणवीर शौरी और नीरज कबी जैसे अक्सर पसंद किये जाने वाले अभिनेता हैं। फिल्म बाल उत्पीड़न और बाल मनोविज्ञान की कोमल से लेकर विस्फ़ोटक जटिलताओं तक को उभार पाने में सफल हुई है, लेकिन इसमें कुछ कमजोर कड़ियाँ भी हैं, और यह मुझे किसी साधारण फिल्म से बेहतर श्रेणी की फिल्म नहीं लगी। फिल्म का अभिनय पक्ष भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है। इस फिल्म में मनोज वाजपेयी के अभिनय की नाहक ही अधिक तारीफ हो रही है, वे इससे बहुत बेहतर काम कर सकते थे। अभिनय की तारीफ करनी हो तो अपेक्षाकृत कम चर्चित शहाना गोस्वामी के अभिनय की तारीफ होनी चाहिए। मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक नीरज कबी ने नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई सेक्रेड गेम्समें अपने अभिनय से मुझे निराश किया था, लेकिन गली गुलियाँमें उन्होंने निराश नहीं किया है। इसके अलावा रणवीर शौरी के हिस्से जितनी भूमिका आयी है, उन्होंने भी उसे अच्छे से निभाया है।

No comments:

Post a Comment