सबरीमाला
मंदिर में प्रवेश के लिए कुछ महिलाओं ने संघर्ष किया और अंततः सुप्रीम कोर्ट का
फैसला महिलाओं के हक में आया, जो मेरे खयाल से ज़रूरी
और बहुत अधिक महत्व का फैसला है। इस फैसले की ज़द में वो हर जगह आनी चाहिए जहां इस
तरह के भेदभावपूर्ण रवैये अपनाये जाते हैं।
खैर
सबरीमाला मंदिर प्रवेश मामले में जीत हासिल करने के बाद अब नई चुनौती यह आ रही है
कि महिलाओं के प्रवेश को रोकने के लिए खुद बहुत सारी महिलाएं ही मोर्चे पर डट गई
हैं! मैं इसी तरह की सोच और घटनाओं को 'स्वाभाविक
विडंबना' कहा करती हूं। यानी कि ऐसा होना आश्चर्य का विषय
नहीं है। सच यह है कि आज भी बहुत सारी महिलाएं, अपने विचारों
और आचरण में महिलाओं को नहीं पुरूषों को ही रिप्रेजेंट करती हैं। महिलाएं
पितृसत्तात्मक मानसिकता का सिर्फ शिकार ही नहीं होतीं, बल्कि
राज़ी-खुशी उसकी ध्वज वाहक भी बन जाती हैं। इसलिए भी हमेशा से स्त्री अधिकारों का
संघर्ष बहुत जटिल और मुश्किल रहा है। मेरी दिली इच्छा है कि मैं जिसे 'स्वाभाविक विडंबना' कहा करती हूं, वह अत्यंत अस्वाभाविक विडंबना में तब्दील हो जाए। लेकिन यह सब बहुत आसान
भी कहां है!
प्राय:
हम सभी (जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं) जाने अनजाने पितृसत्ता के कई मूल्यों को
ढोते और प्रोत्साहित करते हैं! इस बात को जानते हुए भी इस नुकसानदेह प्रवृत्ति से
पूरी तरह मुक्त हो पाना व्यक्तिगत सीमाओं के कारण नामुमकिन सा लगता है, मेरे खयाल से सदियों से चलती आ रही पैट्रिर्याकल कंडिशनिंग इतनी ताकतवर तो
है ही!! लेकिन इस कंडिशनिंग को लगातार कमज़ोर करते रहने की कोशिश तो करनी ही होगी।
जो नामुमकिन सा लगा करता है, वास्तव में नामुमकिन है नहीं।
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