ग्रैजुएशन के दिनों में जब मैं लाइब्रेरी में किसी किताब
को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते परेशान हो जाती थी और अपनी यह परेशानी लाइब्रेरियन को जाकर
बताती थी तो वे किताब ढूंढ़ने में मदद करने के लिए मेरे साथ किताबों के रैक तक आते
थे और किताब ढूंढ़ते हुए अक्सर हर बार कहा करते थे कि 'अरे ढूंढ़ने से तो भगवान भी मिल जाते हैं, ये तो
सिर्फ किताब है।' और कुछ देर बाद वह किताब मिल ही जाती थी।
इस मामले में मैं खुद को बहुत हद तक
खुशकिस्मत मानती हूं कि मुझे अक्सर लाइब्रेरियों में वो सामग्रियां भी बड़ी सहजता
से मिल जाती हैं, जो साधारणतया लोगों की नज़रों
से चूक जाती हैं और कई बार तो लाइब्रेरी के केटलॉग में भी शामिल नहीं होतीं! लेकिन
अब भी कभी-कभी कुछ सामग्रियां ढूंढ़ते हुए बहुत परेशान हो जाती हूं और कई बार तो
निराश भी! लेकिन जब-जब ऐसी स्थिति होती है तो मुझे लाइब्रेरियन सर की कहीं हुई
वहीं बात याद आ जाती है कि 'ढूंढ़ने से तो...' और इसे इत्तेफाक ही कहूंगी कि इसके बाद जब मैं फिर से ढूंढ़ने के काम में
जुटती हूं, तो अक्सर मुझे इच्छित सामग्री मिल ही जाती है!
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