2019
में पहली बार सिनेमा हॉल तक गयी और खुशी है कि कुछ सार्थक देख कर लौटी। लगभग 2
घंटे की फिल्म बिना किसी भाषण, बिना किसी जबरदस्ती
ठूंसे विमर्श के वह सब बता देती है, जिसकी उससे अपेक्षा हो।
फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है- समाज, राजनीति, व्यवस्था सबका सच, सबकी परतें खुलती चली जाती हैं।
अभिनय, संवाद, सिनेमेटोग्राफी सब में
फिल्म को उम्दा कहा जा सकता है।
सुना
है कि कुछ जगह ब्राह्मणों ने इस फिल्म का विरोध किया है। मुझे तो इसका कोई औचित्य
नहीं लगता। विरोध करने वालों को यह फिल्म देखनी चाहिए, मुझे उम्मीद है कि इससे उन्हें खुद को बेहतर बना पाने में कुछ न कुछ मदद
ज़रूर मिलेगी।
एक
और बात जिसका उल्लेख होना चाहिए, वह यह कि इस फिल्म के
एकदम शुरू में गीत -'कहब त लग जाई धक से' भी शामिल है, जिसे दिल्ली के जन आंदोलनों में अक्सर
गाया और सुना जाता है!
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