70-80 के दशक में
हिंदी सिनेमा की मेनस्ट्रीम के बरक्स एक ऐसी धारा का विकास हुआ था, जो शहरी निम्न मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी। नौकरी की जद्दोजहद
करने वाले, एक अदद छत के लिए संघर्ष करते, बसों और लोकल ट्रेनों में सफर करने वाले लोग इन फिल्मों की कहानियों के
नायक-नायिका होते थे। अपने दुःख-दर्द-समस्याओं-खुशियों को केंद्र में रखकर बनायी
गयी फिल्मों में अपने जैसे लोगों को देखकर; एक बड़े वर्ग ने
यह महसूस किया कि सिनेमा उनसे बहुत दूर नहीं है। यदि यह कहा जाए कि इस धारा की
फिल्मों के प्रमुख चेहरा अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा थे, तो
ग़लत नहीं होगा।
जिसने
भी ‘रजनीगंधा’, ‘छोटी सी बात’, ‘तुम्हारे
लिए’, पति पत्नी और वो’ जैसी फ़िल्में
देखी होंगी, वे सब विद्या सिन्हा से परिचित होंगे। विद्या
सिन्हा किसी ‘बड़ी बॉलीवुड फिल्म’ का
हिस्सा नहीं रहीं। लेकिन मध्यम वर्ग की ऐसी कामकाजी महिला जो साड़ी पहने बसों,
टैक्सियों में सफ़र करती है। कहीं क्लर्क, कहीं
पर्सनल असिस्टेंट की भूमिका में नज़र आती हैं। ऐसे कई किरदारों को विद्या सिन्हा ने
पर्दे पर जिया था। 80 के दशक के बाद वे फिल्मों से लगभग ओझल हो गयीं, इसका एक कारण शायद यह भी रहा हो कि, ऐसी फिल्में
बननी भी लगभग बंद हो गयी थीं। लम्बे अंतराल के बाद वे टीवी पर प्रदर्शित होने वाले
कुछ डेली सोप्स में माँ, दादी, बुआ आदि
के किरदार में ज़रूर नज़र आ रही थीं। हालाँकि उनकी इन भूमिकाओं में शायद ही लोग
उन्हें पहचान पा रहे हों कि वे एक समय की फिल्मों का बेहद जाना-पहचाना चेहरा थीं।
कुछ
समय से फेफड़े और दिल की बीमारी से जूझ रही विद्या सिन्हा का आज निधन हो गया। इसे
भी शायद संयोग ही कहा जा सकता है कि देश की आज़ादी वाले वर्ष (15 नवम्बर 1947) में
पैदा हुई विद्या सिन्हा ने आज देश को मिली आज़ादी वाले दिन ही इस दुनिया को अलविदा
कहा। इस समय मुझे किसी फिल्म का वही दृश्य याद आ रहा है, जिसमें चुलबुली सी दिखने वाली विद्या सिन्हा, शिफॉन
की प्रिंटेड साड़ी पहने बस स्टैंड पर अपने ऑफिस जाने वाली बस का इंतज़ार कर रही है।
उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।
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