Monday, 23 March 2020

कोरोना काल में असंवेदनशीलता

महामारी (Covid19) के समय में काम/ सेवा करने वालों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के लिए हमारे देश की जनता ने कल शाम जिस जोश के साथ तालियाँ-थालियाँ बजाई थीं; वो देखने लायक था! लेकिन क्या सच में हम ऐसे समय में उन लोगों को धन्यवाद कर रहे थे??
आँखों देखी घटना बता रही हूँ। पास के एक अपार्टमेंट के लोगों ने कल शाम पूरे उत्साह के साथ खूब थालियाँ-तालियाँ पीटीं थीं। आज सुबह उसी अपार्टमेंट के तीसरे-चौथे फ्लोर से कुछ लोग कूड़ा लेने आयी गाड़ी पर 'कोरोना' के डर से अपनी बालकनी से ही कूड़ा फेंकने लगे। कूड़ा इधर-उधर बिखर रहा था और गाड़ी के साथ आए सफाई कर्मचारियों पर भी गिर रहा था। कुछ लोग सड़कों पर कूड़ा फेंंक रहे थे, और सफाई कर्मचारियों को कह रहे थे; उठा के गाड़़ी में डाल दो! एक सफाई कर्मचारी नीचे से चिल्लाई- 'बेटा हम भी तो इंसान हैं!'
थाली-ताली और शंख की ध्वनियों से कल शाम गूँजने वाली कृतज्ञता आज कूड़े की शक्ल में इस तरह बरस रही थी!
ये मानवता के संकट की झलकी भर है। इस संकट के समय में आगे असंवेदनशीलता का न जाने कैसा-कैसा रूप देखना पड़े।

Friday, 20 March 2020

थाॅट प्रवोकिंग फिल्म है 'थप्पड़'


अनुभव सिन्हा की पिछली फिल्म 'आर्टिकल 15' मुझे बेहद पसंद आई थी और एक सकारात्मक फिल्म लगी थी। बाद के दिनों में जब 'थप्पड़' का ट्रेलर रिलीज़ हुआ ; तब से फिल्म देखने की जिज्ञासा थी।

फिल्म रिलीज़ हुई पर देखने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था। लोगों की प्रतिक्रियाएं भी कुछ खास नहीं मिल रही थी। किसी ने कहा कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा के दिखाया है, तो कोई कह रहा था फालतू ड्रामा है। आज 'थप्पड़' पर फिल्म बनी है; अब कल को उंगली पर फिल्म बनेगी कि तुमने मुझपर उंगली कैसे उठाई! मैं कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी; क्योंकि फिल्म देखी नहीं थी।

फाइनली फिल्म देखने का मौका मिला। फिल्म देखने के बाद लगा कि इसे सही मायनों में काबिले तारीफ और ज़रूरी फिल्म कहा जा सकता है। लोगों की प्रतिक्रियाओं से मुझे फिल्म में जिस-जिस तरह के लूप होल्स की आशंका थी, शुक्र है फिल्म में वैसा कुछ भी नहीं था। अनुभव सिन्हा इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि जो वह दिखाना चाहते थे, उन्हें उसमें सौ प्रतिशत सफलता हासिल हुई है। जब आप 'थप्पड़' देखकर उठेंगे तो बहुत सारी चीज़ों पर, बातों पर सोचने के लिए मजबूर होंगे। सही मायनों में 'थाॅट प्रवोकिंग' फिल्म है। जहाँ बात थप्पड़ की होकर भी थप्पड़ की नहीं है। बात जो गलत हुआ उसको 'शिट हैपेन्स' कहकर टालने, गलती को अस्वीकारने, ग्लानि बोध न होने और माफी न मांगने की है और फिल्म में इसे दिखाने में निर्देशक कहीं चूके नहीं हैं।
फिल्म का अभिनय पक्ष भी उम्दा है। पहली बार स्क्रीन पर दिखे पवैल गुलाटी ने मंझा हुआ अभिनय किया है। 'आँखों देखी' के बाऊजी की बेटी बनी माया सराओ को इसमें वकील की भूमिका में पहचानना मुश्किल है; उनका अभिनय भी बेहतर है। बाकी पूरी स्टार कास्ट ने भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया है।
अनुभव सिन्हा की खासियत है कि उनकी फिल्में बेहद स्पष्ट होती हैं। जो वो कहना चाहते हैं उसमें कहीं भी आपको अस्पष्टता देखने को नहीं मिलती। उनकी पिछली फिल्मों 'मुल्क'और 'आर्टिकल 15' से भी इसे समझा जा सकता है। ये स्पष्टता ही आम से आम दर्शक को भी फिल्म से जोड़ने में सहायता करती है।
'थप्पड़' हमारे समाज को दिखाती है। समाज की उन बारीक चीज़ों को कवर करती चलती है; जिनके बारे में हमारा पितृसत्तात्मक समाज सोचने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता। फिल्म आपको बहुत कुछ देकर जाती है।

Thursday, 6 February 2020

लेखक कृष्ण बलदेव वैद का निधन


एम.ए. के दिनों में पढ़ा था उपन्यास 'एक नौकरानी की डायरी'। तब इसने चमत्कृत किया था। जुदा कथ्य, सहज-सरल-प्रवाहमयी भाषा और बेहद प्रभावित करने वाला शिल्प। इसके लेखक थे- कृष्ण बलदेव वैद। उन्होंने विभिन्न गद्य विधाओं में प्रचुर मात्रा में लेखन किया है और हिन्दी साहित्य जगत में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा रही है। साथ ही वे हिन्दी के उन लेखकों की परंपरा से भी थे; जिनकी पढ़ाई-लिखाई और आजीविका की भाषा अंग्रेज़ी थी, लेकिन जिन्होंने लेखन के लिए हिन्दी को अपना माध्यम चुना। आज उनका निधन हो गया। वे 92 वर्ष के थे। उन्हें श्रद्धांजलि।

Sunday, 5 January 2020

पंकज कपूर की 'हैप्पी'


लम्बे अरसे से पंकज कपूर अभिनीत फिल्म हैप्पीका इंतज़ार कर रही थी; बहुत साल पहले इस फिल्म का सिर्फ पोस्टर भर देखा था। फिर सालों तक सर्च करती रही; लेकिन न तो उस फिल्म की चर्चा कहीं सुनी, न ही ट्रेलर वगैरह देखने को कहीं मिला। लेकिन अभी कुछ दिन पहले ज़ी5 पर ये फिल्म अचानक से दिखाई दी। पता चला कि कई तरह की दिक्कतों से जूझते हुए इस फिल्म को परदे पर रिलीज़ करना संभव नहीं हो सका तो अंतत: 25 दिसम्बर को यह फिल्म ज़ी5 पर रिलीज़ की गयी। साल 2019 ने बेहतर हिंदी फिल्मों के ख़याल से लगभग निराश ही किया; ऐसे में साल के अंत तक पहुँचते-पहुँचते हैप्पीदेखना संतोषप्रद रहा।
पंकज कपूर अपनी हर फिल्म में कुछ अलग, कुछ नया करने के लिए जाने-जाते हैं। इस फिल्म में भी उनका अभिनय बेहतरीन है। उल्लेखनीय यह है कि इसकी कहानी भी उन्होंने ही लिखी है। निर्देशक भावना तलवार ने काबिले तारीफ काम किया है। इससे पहले धर्मफिल्म से भी वो अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी हैं। फिल्म हैप्पीपूरी की पूरी ब्लैक एंड व्हाइट इफैक्ट के साथ बनायी गयी है। फिल्म के मुख्य किरदार हैप्पी पर और फिल्म पर चार्ली चैपलिन और उनकी फिल्मों का प्रभाव भी महसूस किया जा सकता है। इस फिल्म का मुख्य किरदार एक बहुत ही सकारात्मक संवाद को फिल्म में कई बार दोहराता है। उसे यहाँ लिख देने का लोभ मुझसे छूट नहीं रहा है- दोस्तों ये जो ज़िन्दगी नाम की डिश है न, इसमें सबसे ज़रुरी मसाला होता है स्माइल का। इस्माइल प्लीज़ :)  

Sunday, 22 December 2019

ईशनिंदा के आरोप में ज़ुनैद को फाँसी की सजा


जिस समय भारत में सभी धर्मों के लोग मिल जुलकर नागरिकता संशोधन कानून (CAA) का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कानून हमारे संविधान द्वारा प्रस्तावित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ़ है; ठीक उसी समय पाकिस्तान की एक जिला अदालत ने 33 साल के युवक जुनैद हफीज़ को इसलिए मौत की सजा सुनाई है, क्योंकि उनपर ईश-निंदा का आरोप है!
2013 में जब जुनैद सिर्फ 27 साल के थे और बहाउद्दीन ज़कारिया विश्वविद्यालय, मुल्तान में लेक्चरर थे; तभी ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। पाकिस्तान की भयावह स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जुनैद की पैरवी करने के लिए तैयार हुए वकील की 2014 में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके बाद उनके केस की पैरवी के लिए वकील तक मिलना बेहद मुश्किल हो गया। इतना ही नहीं इन छ: सालों में जुनैद पर जेल में कई बार जानलेवा हमले हुए। ये है मानवाधिकार के चैम्पियन बनने की होड़ में लगे इमरान खान के नए पाकिस्तान की हकीक़त!
जुनैद को अमेरिकी साहित्य, फोटोग्राफी और थिएटर में विशेषज्ञता हासिल है। अमेरिका में फुल-ब्राइट स्कॉलरशिप के साथ उन्होंने अपना मास्टर्स पूरा किया था। एक ऐसे प्रतिभाशाली युवक को जिससे पाकिस्तान को बहुत लाभ हो सकता था, धर्म की आड़ में मौत दे दी जाएगी! कल रात जब से ये खबर पढ़ी है, तब से बहुत डिस्टर्ब्ड हूँ।
हमें किसी भी तरह की धर्मांधता और कट्टरपंथ से इसीलिए डर लगता है। इसलिए हम 'पाकिस्तान' होते जाने से डरते हैं। हम सबकी पहली खुश-नसीबी तो यही है कि हम किसी 'पाकिस्तान' में नहीं; हिन्दुस्तान में रहते हैं। इस हिन्दुस्तान को 'हिन्दुस्तान' बनाए रखने की फिक्र इसलिए हमें बराबर बनाए रखनी होती है!
दुनिया भर के देशों का यह दायित्व है कि वे जुनैद के मानवाधिकार के लिए सख्ती के साथ खड़े हों और पाकिस्तान को इस बात के लिए मजबूर कर दें कि वो जुनैद को रिहा करे। साथ ही दुनिया भर में ईशनिंदा जैसे कानून का कोई अस्तित्व न रहे; इसके लिए भी सभी देशों को मिलकर काम करना चाहिए।

Friday, 22 November 2019

शौकत आज़मी का निधन



यदि आप शौकत आज़मी को कैफी आज़मी की पत्नी या शबाना आज़मी की माँ के बतौर ही जानते हैं; तो दरअसल आप एक बेहद मजबूत और बेहद प्रतिभाशाली शख्सियत से लगभग अपरिचित ही हैं। वे कमाल की अदाकारा, महिलाओं की बराबरी को व्यवहार में साबित करने वाली और जन नाट्य मंच के शुरुआती स्तंभों में से एक थीं। कह सकते हैं कि शबाना आज़मी ने अभिनय अपनी माँ की कोख से ही सीखना शुरू कर दिया था। शौकत की अभिनय क्षमता देखनी हो तो आप 'उमराव जान', 'गर्म हवा' और 'बाज़ार' जैसी फिल्मों में उन्हें देखिए।
शौकत आज़मी का आज देर रात निधन हो गया। वे 93वें वर्ष की थीं। लम्बे समय से कहीं उनका ज़िक्र होना भी लगभग बंद हो चुका था। अब उनकी मृत्यु के बाद शायद उनके योगदान की फिर से समीक्षा हो। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि!

Monday, 18 November 2019

डॉ. फ़िरोज़ की नियुक्ति का विरोध और जगन्नाथ-लवंगी प्रसंग


बीएचयू में संस्कृत के सहायक प्राध्यापक के रूप में डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्रों में से कुछ छात्रों के विचार एक न्यूज़ चैनल की वीडियो फुटेज के माध्यम से जानने को मिले। अधिकांश छात्रों ने बताया कि वे काशी की परंपरा और गरिमा को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कोई विधर्मी और अनार्य उन्हें धर्म पढ़ाए-सिखाए ये उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पक्ष को अधिक मजबूती से पेश करने के लिए एक छात्र ने पंडितराज जगन्नाथ से जुड़े प्रसंग का ज़िक्र करते हुए कहा कि आचार्य जगन्नाथ भले ही बहुत प्रतिष्ठित विद्वान और धर्मज्ञ रहे हों, लेकिन काशी के समाज ने उनका भी इसलिए बहिष्कार कर दिया था; क्योंकि उन्होंने एक यवन (मुसलमान) कन्या से शादी की थी। अफसोस है कि उस छात्र ने इस प्रसंग का अधूरा ज़िक्र किया!
लोगों के बीच यह प्रसंग जिस रूप में सुरक्षित है, वास्तव में वह आत्मा की गांठे खोल देने वाला है। कहते हैं कि पंडितराज जगन्नाथ का लवंगी नाम की जिस लड़की से प्रेम हुआ था, वह शाहजहाँ के परिवार में पली-बढ़ी एक अनाथ कन्या थी। उसके माता-पिता मुसलमान थे।
लवंगी से विवाह के बाद आचार्य जगन्नाथ काशी लौटे। काशी के विद्वानों ने हाय तौबा मचाना शुरू कर दिया, उनका बहिष्कार कर दिया और स्थिति यह हो गई कि एक बेहद योग्य और विद्वान व्यक्ति का जीवन-यापन तक दूभर हो गया। ऐसी स्थिति में बहुत क्षुब्ध होकर पंडितराज ने कहा कि काशी के पंडित उनका बहिष्कार करने वाले कोई नहीं होते; काशी के द्वारा उन्हें और उनके विवाह को स्वीकारने-अस्वीकारने का निर्णय सिर्फ माँ गंगा कर सकती हैं। इसके बाद उन्होंने घोषणा की कि काशी का समाज गंगा तट पर आकर खुद अपनी आँखों से देख सकता है कि माँ गंगा उन्हें ठुकराती हैं या स्वीकारती हैं।
तय तिथि को नियत घाट पर काशी निवासियों की पूरी भीड़ जमा हो गई। लवंगी के साथ पंडितराज जगन्नाथ भी घाट की सबसे ऊपरी सीढ़ी पर बैठ गए। इसके बाद पंडितराज ने गंगा की स्तुति में श्लोक लिखने शुरू किए। कहा जाता है कि उनके एक-एक श्लोक रचने और पढ़ने के साथ गंगा का जल स्तर भी एक-एक सीढ़ी ऊपर आता जाता। इस तरह उन्होंने कुल 52 श्लोकों की रचना की और गंगा का जल उस अंतिम बावनवी सीढ़ी तक पहुँच गया जहाँ पंडितराज और लवंगी बैठे हुए थे। अपने आह्वान पर गंगा के उन तक पहुँचने पर पंडितराज भाव विह्वल हो गए और उनका गला रूंध गया। रूंधे गले से उन्होंने प्रार्थना की कि माँ गंगे उन्हें और लवंगी को स्वीकार कर अपनी शरण में लें। तब पूरी भीड़ के बीच से गंगा ने दोनों को इस तरह से समेटा जैसे कोई माँ अपने बच्चों को गोद में उठा रही हो। इसके बाद कुछ क्षणों में ही गंगा का जलस्तर सामन्य हो गया।
यह प्रसंग धर्म सम्प्रदाय के कृत्रिम कट्टर विभाजन को नकार कर मनुष्य की गरिमा को स्थापित करता है। कहा जा सकता है कि मनुष्यता को स्थापित करने के लिए जगन्नाथ और लवंगी ने अपना बलिदान दिया था!
लेकिन कहते हैं कि काशी के कट्टर विद्वान समाज पर इस बलिदान का भी कोई विशेष असर नहीं पड़ा था। डॉ.फिरोज की नियुक्ति का विरोध करते हुए एक छात्र द्वारा पंडितराज जगन्नाथ के प्रसंग का अधूरा जिक्र; इसी बात को साबित करता है कि वह कट्टरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज भी कायम है!!

Wednesday, 28 August 2019

अशांत कश्मीर, पाकिस्तानी सत्ताधारियों की दुर्भावना और आज़ादी का मतलब


कश्मीर को अशांत बनाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी पाकिस्तान की सरकारों की है। इतिहास गवाह है कि कश्मीरियों के विश्वास को सबसे पहले पाकिस्तान के सत्ताधारियों ने ही तोड़ा। और अब भी वे आज़ाद कश्मीर के नाटक के नाम पर एक गुलाम कश्मीर को भोग रहे हैं। अगर POK आज़ाद होता तो किस हक़ से इमरान खान पाकिस्तान के स्वंत्रता दिवस पर वहाँ पाकिस्तान का झंडा फहराने गए थे? अपने ही संकल्प से पीछे हटकर पाकिस्तान ने POK में बहुत सारे गैर कश्मीरियों को योजनाबद्ध तरीके से बसाया हुआ है। कश्मीर से पाकिस्तानियों को इतना ही प्यार होता तो वे अक्साई चीन का हिस्सा चीन को उपहार में नहीं दे देते। अब जब पाकिस्तान में विपक्ष के नेता बिलावल भुट्टो और इमरान खान की पूर्व पत्नी का बयान आया है कि पहले पाकिस्तान के सत्ताधारी श्रीनगर को पाकिस्तान में मिलाने की बात किया करते थे लेकिन अब वो अपने POK को बचाने के लिए भी जूझ रहे हैं; तो साफ़ हो जाता है कि पाकिस्तान किस निगाह से कश्मीर को देखता रहा है। हे महानुभावों गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद से निपटो। मानवाधिकार की बहाली के लिए मन से प्रयास करो। दोनों ही मुल्कों की सत्ता के लिए युद्धोंन्माद, सीमा विवाद जैसे मुद्दे अपने ही देश की जनता के आवश्यक मुद्दों से ध्यान भटकाने की सबसे बड़ी साजिश है।
कश्मीर पर जोर-जबरदस्ती बंद होनी चाहिए। वहाँ पर मानवाधिकार को जिस तरह से ताक पर रख दिया गया है, वह बेहद तकलीफदेह है। यह भी ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट धारा 370 पर एक संतुलित और संवेदनशील निर्णय दे। कश्मीरी आवाम को भी इस बात पर विचार करना चाहिए कि कश्मीर की आज़ादी कोई झांसा तो नहीं है, जिसकी बदौलत हमेशा के लिए अशांति और पिछड़ापन बरक़रार रखा जा सके; और राजनीतिक रोटियाँ सिकती रहें। हम सब इसकी बहुत दर्दनाक कीमत चुकाते आ रहे हैं। कश्मीरियों के आज़ादी के नारों में लम्बे समय से एक यह नारा भी सुना जाता है; जिसमें कहा जाता है- आज़ादी का मतलब क्याऔर जो मतलब बताया जाता है; वह कश्मीरियततो कत्तई नहीं है! यह बात साफ़ होनी चाहिए कि अब यह उप-महाद्वीप एक और पाकिस्तानके निर्माण का सदमा और घाव बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है!
हम एक धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र हैं। हमें न तो भारत पर कोई हिंदूवादी दावा मंजूर है, न कश्मीर पर कोई इस्लामी दावा। ये दोनों ही स्थितियाँ हमें नर्क की तरफ धकेलने वाली स्थितियां हैं। आज़ादी का मतलब- इस देश में अमन, चैन और नागरिक अधिकारों के साथ जीना है- यही हमारा ध्येय होना चाहिए और इसके  लिए हमें मिलजुल कर कदम से कदम मिलाकर संघर्ष करते रहना होगा।

Monday, 19 August 2019

अलविदा खय्याम साहब!


आप हमारे देश के शीर्षस्थ संगीतकार ही नहीं, एक बेहद ऊँचे दर्जे के इंसान भी थे। आप उमराव जान’, ‘कभी कभीऔर बाज़ारजैसी फिल्मों के गीतों को दिए उम्दा संगीत के लिए ही नहीं अपनी अंदरूनी खूबसूरती के लिए भी हमेशा याद किये जायेंगे। आपकी चिंता में सिर्फ आप नहीं थे; आपकी संवेदना का दायरा बहुत बड़ा था। ईश्वर जगजीत कौर जी को वियोग सह पाने का धैर्य दें। आप दोनों ने साम्प्रदायिक सीमाओं को तोड़कर साथ में सफ़र शुरू किया, सुख-दुःख के कई दशक साथ बिताये, साथ में काम किया, एक-दूसरे का सहयोग किया। आप दोनों ने मिलकर वह पहाड़ जैसा दुःख भी झेल लिया; जब आपका इकलौता जवान बेटा असमय आप लोगों से छिन गया। जिस तरह बेटे की स्मृति को आप दोनों ने अपना संबल बनाकर खुद को समाज के लिए समर्पित कर दिया, मैं प्रार्थना करती हूँ कि आपकी स्मृति भी जगजीत जी के लिए संबल बने और वे खुद को कभी अकेला महसूस न करें। नम श्रद्धांजलि।

Thursday, 15 August 2019

नहीं रहीं विद्या सिन्हा

70-80 के दशक में हिंदी सिनेमा की मेनस्ट्रीम के बरक्स एक ऐसी धारा का विकास हुआ था, जो शहरी निम्न मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी। नौकरी की जद्दोजहद करने वाले, एक अदद छत के लिए संघर्ष करते, बसों और लोकल ट्रेनों में सफर करने वाले लोग इन फिल्मों की कहानियों के नायक-नायिका होते थे। अपने दुःख-दर्द-समस्याओं-खुशियों को केंद्र में रखकर बनायी गयी फिल्मों में अपने जैसे लोगों को देखकर; एक बड़े वर्ग ने यह महसूस किया कि सिनेमा उनसे बहुत दूर नहीं है। यदि यह कहा जाए कि इस धारा की फिल्मों के प्रमुख चेहरा अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा थे, तो ग़लत नहीं होगा।
जिसने भी रजनीगंधा’, ‘छोटी सी बात’, ‘तुम्हारे लिए’, पति पत्नी और वोजैसी फ़िल्में देखी होंगी, वे सब विद्या सिन्हा से परिचित होंगे। विद्या सिन्हा किसी बड़ी बॉलीवुड फिल्मका हिस्सा नहीं रहीं। लेकिन मध्यम वर्ग की ऐसी कामकाजी महिला जो साड़ी पहने बसों, टैक्सियों में सफ़र करती है। कहीं क्लर्क, कहीं पर्सनल असिस्टेंट की भूमिका में नज़र आती हैं। ऐसे कई किरदारों को विद्या सिन्हा ने पर्दे पर जिया था। 80 के दशक के बाद वे फिल्मों से लगभग ओझल हो गयीं, इसका एक कारण शायद यह भी रहा हो कि, ऐसी फिल्में बननी भी लगभग बंद हो गयी थीं। लम्बे अंतराल के बाद वे टीवी पर प्रदर्शित होने वाले कुछ डेली सोप्स में माँ, दादी, बुआ आदि के किरदार में ज़रूर नज़र आ रही थीं। हालाँकि उनकी इन भूमिकाओं में शायद ही लोग उन्हें पहचान पा रहे हों कि वे एक समय की फिल्मों का बेहद जाना-पहचाना चेहरा थीं।
कुछ समय से फेफड़े और दिल की बीमारी से जूझ रही विद्या सिन्हा का आज निधन हो गया। इसे भी शायद संयोग ही कहा जा सकता है कि देश की आज़ादी वाले वर्ष (15 नवम्बर 1947) में पैदा हुई विद्या सिन्हा ने आज देश को मिली आज़ादी वाले दिन ही इस दुनिया को अलविदा कहा। इस समय मुझे किसी फिल्म का वही दृश्य याद आ रहा है, जिसमें चुलबुली सी दिखने वाली विद्या सिन्हा, शिफॉन की प्रिंटेड साड़ी पहने बस स्टैंड पर अपने ऑफिस जाने वाली बस का इंतज़ार कर रही है। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।