‘हज़ार
चौरासी की माँ’ मेरी अब तक देखी गयी साहित्य आधारित कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक
है। यह फिल्म मैंने बहुत पहले देख ली थी, और उससे इतनी अधिक प्रभावित हुई, कि बाद
में भी कई बार देखती रही हूँ। इसे बार-बार देखने की ज़रूरत क्यों महसूस होती है, यह इसे देखने के बाद ही जाना जा सकता है।
महाश्वेता
देवी के लिखे मूल बांग्ला उपन्यास का हिन्दी अनुवाद बहुत बाद में, बल्कि हाल ही में
पढ़ पायी हूँ। उपन्यास को इतनी देर से पढ़ने का एक कारण यह भी था कि फिल्म देख लेने
के बाद, इतना संतोष मिला था कि इसकी बहुत ज़रूरत महसूस नहीं हो रही थी। अब उपन्यास
पढ़ लेने के बाद, मुझे इसके सिनेमाई रुपांतरण को नये सिरे से समझने का अधिक अवसर
मिला है।
मेरे
खयाल से महाश्वेता देवी (जिन्हें मूल कथानक की लेखिका होने के कारण मैं 'हज़ार चौरासिवें की माँ' की माँ भी कहती हूँ) का लेखन
इतना उम्दा और प्रभाशाली है, कि उनका यह उपन्यास अपने आप में एक सिनेमा भी है। इसलिए
मुझे लगता है कि सिनेमा के रूप में इसकी परिकल्पना करते हुए गोविन्द निहलानी को
बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ी होगी। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फिल्म को देखने और
इसकी आधार साहित्यिक कृति को पढ़ने के बाद यह लगे कि फिल्म और मूल कृति एकाकार हो
गये हों। उपन्यास के पात्रों की मन:स्थिति, उनके हाव-भाव, स्थिति विशेष में उनकी
क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ सभी को फिल्म निर्देशक गोविन्द निहलानी ने बेहद सूक्ष्मता
और गहराई के साथ समझा है, और बहुत ही कुशलता से उनका फिल्मांकन किया है।
अक्सर
इस बात की शिकायत की जाती है कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाते हुए फिल्मकार
उस कृति के साथ अनुचित और अनावश्यक छेड़-छाड़ करते हैं, और इससे मूल कृति की आत्मा ही
गायब कर दी जाती है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार फिल्मकारों ने साहित्यिक
कृतियों पर फ़िल्में बनाते हुए उनमें कुछ फेर-बदल किये और वे फेर-बदल मूल कृति को
और बेहतर बनाकर प्रस्तुत करने वाले साबित हुए। मेरे खयाल से ऐसा तब संभव हुआ जब
फिल्मकारों ने मूल कथा के साथ कुछ प्रयोग व्यावसायिक लाभ के दृष्टिकोण से नहीं
किये बल्कि फिल्म को अधिक सम्प्रेषणीय और
अधिक प्रभावशाली बनाने के दृष्टिकोण से किये।
निर्देशक
गोविन्द निहलानी ने ‘हजार चौरासवें की माँ’ की मूल कथा के साथ इसी दृष्टिकोण से
कुछ रचनात्मक प्रयोग किये हैं। उन्होंने इस फिल्म के अंत को उपन्यास के अंत से थोड़ा
अधिक विस्तार दिया है, और यह विस्तार इसे और भी सार्थक बनाता है। यह विस्तार मूल
कथा के जुझारू पात्रों के जुझारूपन को विस्तार देता है और नयी परिस्थिति में क्रूर
व्यवस्था के खिलाफ उनके संघर्ष को नया आयाम भी प्रदान करता है। यानी यह फिल्म
उपन्यास को स्वाभाविक और सकारात्मक विस्तार देती है। साहित्य और सिनेमा के खूबसूरत
रिश्तों का यदि कोई उदाहरण देना हो तो निसंकोच 'हज़ार
चौरासी की मां' का उल्लेख किया जा सकता है।




No comments:
Post a Comment