Monday 23 April 2018

ताकि किताबों की संस्कृति बची रहे

पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा अन्य किताबों से मेरा कभी बहुत सरोकार नहीं रहा था। घर में भी ऐसा कोई माहौल नहीं था। पापा की थोड़ी-बहुत रूचि चूँकि धार्मिक साहित्य को पढ़ने में थी, तो किताबों के नाम पर घर में सिर्फ कुछ एक धार्मिक किताबें ही होती थीं। इसके बावजूद साहित्य मुझे बचपन से आकर्षित करता था। नए सत्र के शुरू होने से पहले ही मैं पाठ्यक्रम में लगी हिंदी की किताब पूरी पढ़ जाया करती थी, इसके अलावा स्कूल की छोटी सी लाइब्रेरी से कभी-कभार एक-आध किताब पढ़ने के लिए मिल जाती थी।
लेकिन वास्तव में साहित्य से मेरा मजबूत रिश्ता कॉलेज में जाकर ही बना। एक समृद्ध लाइब्रेरी तब मैंने पहली बार देखी। मैं जो भी किताब चाहूँ, यहाँ से इश्यू करवा सकती थी। ये मेरे लिए एक बड़ा ही रोमांचक ख़याल था और अगले तीन सालों में मैंने उस लाइब्रेरी से लेकर इतनी किताबें पढ़ी, जिस गति से मैंने फिर बाद में कभी किताबें नहीं पढ़ी। अच्छी किताब के रूप में जिस किताब का भी ज़िक्र अपने शिक्षकों, सीनियर्स वगैरह से सुनती उसी दिन वो किताब ढूंढकर उसे इश्यू करवाती और दो-तीन दिन में पढ़कर ख़त्म कर देती। उस समय लाइब्रेरी से मेरा नाता ऐसा बना कि कौन सी किताब किस रैक में, कहाँ मिलेगी ये मैं किसी को एक झटके से बता सकती थी। कुछ दोस्तों का तो मानना था कि किताबों की जगह की सटीक जानकारी के मामले मैं लाइब्रेरी के कर्मचारियों से भी दो कदम आगे थी। खुशकिस्मती से लाइब्रेरी में किताबों का ठिकाना पहचानने और बहुत से साथियों को किताबें ढूँढने में मदद करने का यह सिलसिला आज तक कायम है।
किताबों से जुड़े कई यादगार प्रसंग हैं, लेकिन बहरहाल उनमें से एक प्रसंग का ज़िक्र कर रही हूँ, जो मुझे अक्सर ध्यान हो आता है। एम.ए में नया-नया एडमिशन हुआ था। शुरूआती दिनों में बहुत कम ही लोगों से परिचय हुआ था। शुरुआती परिचित लोगों में से एक जैनेन्द्र नाम का लड़का भी था। क्लास का शायद दूसरा या तीसरा ही दिन रहा होगा। उसके पास मैंने कुछ किताबें देखीं। उनमें से एक किताब मुझे अच्छी लगी। किताब का नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा, शायद कोई उपन्यास ही रहा होगा। मैंने उससे पूछा कि तुम यदि इस समय इस किताब को नहीं पढ़ रहे हो, तो क्या मुझे दे सकते हो, मैं इसे पढ़कर कल तक लौटा दूंगी। मुझे ख़ुशी हुई कि उसने बिना हिचक वह किताब मुझे दे दी। लेकिन किताब देने के ठीक बाद एक ऐसी घटना घटी जो मुझे तब बहुत ही अजीब लगी थी। उसने मेरे सामने ही एक नोटबुक निकाली और उसमें किताब का शीर्षक, मेरा नाम और तारीख लिख ली। मुझे यह अजीब लगा। मैंने पूछा कि तुम ये क्या लिख रहे हो ? उसने ज़वाब दिया कि तुम्हें किताब दी है, यह नोट कर रहा हूँ ताकि भूल न जाऊं।
उसकी ये बात सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। इतना बुरा किसी से कोई चीज़ लेकर मुझे पहले कभी नहीं लगा था। मेरे स्वाभिमान को जैसे ठेस पहुँच गयी हो। मैंने कहा तुम्हारी किताब लेकर मैं भाग जाउंगी क्या! रखो अपनी किताब मुझे नहीं चाहिए। उसने कहा - अरे ऐसी कोई बात नहीं है। मेरी बहुत सी किताबें इधर-उधर बहुतों के पास रहती हैं, इसलिए मुझे नोट करना पड़ता है ताकि कोई किताब लेकर वापस करना भूल जाये, तो मैं भी भूल न जाऊं और तगादा कर सकूँ। तुम ले जाओं, इसमें बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है! मैंने किताब ले तो ली, लेकिन उसके इतना बोल लेने के बाद भी मैं यह नहीं समझ पाई थी कि कोई किसी की किताब वापिस करना क्यों भूल जायेगा या क्यों रख लेगा!
खैर अगले दिन पढ़कर मैंने उसे वह किताब लौटा दी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि सचमुच मैंने एक दिन में किताब पढ़ भी ली। इस बार ताव खाने की बारी मेरी थी। उसे शुक्रिया कहने की बजाय मैंने यह कहा कि अपनी वो नोटबुक निकालो और मेरा नाम उसमें से काटो। नहीं तो बाद में किसी दिन कहोगे कि तुमने मेरी किताब दबा रखी है। अपने सामने ही मैंने उसकी नोटबुक से अपना नाम कटवाया।
समय के साथ-साथ लेकिन यह अनुभव हुआ कि किसी को किताब देते हुए नोट कर लेने का जैनेन्द्र का जो तरीका था, वह बहुत ही ज़रूरी और व्यावहारिक तरीका था। बाद के दिनों में अपने अनुभवों से जाना और कई जगह पढ़ा भी कि अच्छे से अच्छे लोग भी किताबों के चोर होते हैं। देने वाले को याद न रहे तो किताबों को दबा जाना, उन्हें खो देना और अगर कभी देने वाले को याद आ जाए तो उसके आगे खींसे निपोर देना, किताबों के पन्ने फाड़ लेना, या किताबों पर अपनी कलाकारियाँ कर देना आम बात है। इतने खतरे उठाते हुए भी यदि कोई अपनी किताब आपको दे रहा हो तो वह वाकई बड़ी बात होती है।
हर किताब हर कोई नहीं खरीद सकता, लेकिन मित्रों के बीच आपसी सहयोग और भागीदारी से कई किताबें खरीदी जा सकती हैं और एक-दूसरे में बाँटकर, उन सभी किताबों को पढ़ा जा सकता है। इसके लिए लेकिन बहुत ज़रूरी है कि हम एक ज़िम्मेदार पाठक बनें और किताबों के लेन-देन की भावना की कद्र करने वाले हों। हम सब किताबों से बहुत कुछ हासिल करते हैं, इसलिए यह हमारा नैतिक दायित्व भी है कि किताबों के मामले में हम कभी भी बेईमान न बने। किताबों की संस्कृति फलती-फूलती रहे उस दिशा में हम अपना यह छोटा सा योगदान तो दे ही सकते हैं!

1 comment: