आने वाले हफ्ते के बाकी दिनों की व्यस्तता पहले से निर्धारित थी, इसलिए कल शाम ‘पीहू’ और ‘मोहल्ला अस्सी’ दोनों ही फ़िल्में बैक टू बैक देखनी पड़ी। ज़िन्दगी में पहली बार बड़े पर्दे पर एक ही दिन में दो फ़िल्में देखीं। दरअसल दोनों ही फिल्मों का लम्बे समय से इंतज़ार था और मुझे लग रहा था कि इनमें से एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता।
जो पहली फिल्म देखी वो विनोद कापड़ी निर्देशित ‘पीहू’ थी। इससे पहले विनोद कापड़ी ‘मिस टनकपुर हाज़िर हों’ बनाकर तारीफें बटोर चुके हैं। इसलिए ‘पीहू’ से अपेक्षाएं स्वाभाविक थी लेकिन इस फिल्म ने निराश किया। मुझे नहीं पता कि कुछ लोग किन भावनाओं में बहकर इस फिल्म की तारीफ कर रहे हैं, मुझे तो यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ भावनाओं को भुनाने वाली लगी। सुनने में यह भी आया है कि कुछ अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इस फिल्म को पुरस्कार और तारीफें भी मिली हैं, यह भी मेरे लिए आश्चर्य की बात ही है! फिल्म देखने के बाद मुझे लगा कि इस पूरी घटना को महज़ एक सम्वेदनशील रिपोर्ट के रूप में भी छापा या दिखाया जाता तो वह इस फिल्म से कम प्रभावी नहीं होता। यह फिल्म जो सन्देश देना चाहती है, वो निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इस सन्देश को ग्रहण करने के लिए आपको इस फिल्म को अनावश्यक रूप से लगभग दो घंटे तक झेलना पड़े तो यह बेमानी लगता है।
एक ही लोकेशन और सिचुएशन पर पूरी फिल्म को शूट करना कम खर्चीला ज़रूर होता है, लेकिन वह सचमुच बहुत चुनौतीपूर्ण भी होता है, उसमें बहुत सावधानी की जरुरत होती है। विनोद कापड़ी और उनकी टीम इस मसले पर काफी लचर साबित हुई है। इस फिल्म में एक से बढ़कर एक असंगत दृश्यों की भरमार है। कई बार तो ऐसा लगा कि जब जिस चीज़ को दिखाना होता है वो चीज़ उस दृश्य में हाज़िर हो जाती है। मसलन बीच घर में बच्ची को फिनायल की बोतल मिल जाती है, इसी तरह बच्ची के हाथ से दूध की बोतल गिर जाने पर उसे वहीं पर पोछा भी मिल जाता है! मुझे लगता है कि निर्देशक ने सोचा होगा कि इन पहलुओं पर कोई बारीकी से ध्यान नहीं देगा जबकि, सच यह है कि फिल्म के दौरान यह सारी चीज़ें बहुत डिस्टर्ब करती हैं और यह कोई बारीक नहीं बल्कि साफ़ दिखने वाला अंतर है। एक दृश्य में बच्ची अपनी मृत माँ के ज़ख़्मी चेहरे पर बहुत सारी एंटीसेप्टिक क्रीम लगाती है और अगले कुछ दृश्यों में वह क्रीम कभी चेहरे पर दिखाई देती है, और कभी गायब हो जाती है। ये कुछ संकेत भर हैं, इस फिल्म में ऐसी गलतियों की भरमार है। गौर से देखेगें तो इस फिल्म के कई दृश्य और घटनाएँ आपको अतार्किक लगेंगी। एक दृश्य को लेकर हालांकि मैं कोई एक्सपर्ट कमेंट नहीं कर सकती लेकिन मेरे लिए यह ताज्जुब और जिज्ञासा का विषय ज़रूर है कि क्या नींद की चार गोलियां खाकर भी दो साल की बच्ची को महज़ तीन-चार घंटे की नार्मल नींद ही आएगी? और उसके बाद उठकर वह पूरी तरह एक्टिव हो सकती है? इस फिल्म में ऐसा हुआ है और हो सकता है कि यह मेडिकली प्रूव्ड हो, मुझे इसकी जानकारी नहीं है। मेरे खयाल से फिल्म की पटकथा बहुत दुरूस्त नहीं है। इस पर बहुत मेहनत करने की जरूरत थी जिसे शायद बहुत महत्वपूर्ण नहीं समझा गया। शायद बहुत सारा ध्यान एक छोटी बच्ची को फिल्माने की चुनौतियों से निपटने पर ही लगा दिया गया।
एक छोटी बच्ची से प्रभावी अभिनय करवाना सचमुच बहुत कठिन काम है। इस फिल्म की बड़ी खासियत भी यही बताई जा रही थी वो कि एक बहुत छोटी बच्ची से निर्देशक ने चुनौती भरा अभिनय करवाया है। इसमें कोई शक नहीं कि पीहू विश्वकर्मा सचमुच बहुत प्यारी बच्ची है, और हर बच्चे की तरह उसकी सहज हरकतें लोगों को पसंद आती हैं और इसे उतारने के लिए निर्देशक और पूरी टीम ने बहुत मेहनत भी की होगी, लेकिन मुझे कहना चाहिए कि इसके बावजूद निर्देशक ने फिल्मांकन का कोई बहुत महीन काम नहीं किया है। हिंदी सिनेमा के कई निर्देशकों ने छोटे-छोटे बच्चों से बहुत असाधारण काम करवाए हैं। एक उदाहरण के लिए 1966 में प्रदर्शित हुई चेतन आनंद की एक बहुत ही साधारण फिल्म ‘आखिरी ख़त’ का जिक्र किया जा सकता है जिसमें महज़ सवा साल के बच्चे से बहुत बेहतरीन अभिनय करवाया गया है। वास्तव में बहुत साधारण स्तर के निर्देशकों ने भी चाइल्ड आर्टिस्ट्स से बहुत बेहतर काम करवाए हैं।
‘पीहू’ के प्रमोशन में इस तरह की भावनात्मक अपील की जा रही है कि जो अपने परिवार से प्यार करते हैं वो यह फिल्म देखने ज़रूर जाएँ। लेकिन फिल्म देखने के बाद मैं यह कह सकती हूँ कि आर्थिक लाभ के लिए यह एक किस्म का भावनात्मक दोहन भर है। इस फिल्म को वो लोग ज़रूर देखने जाएँ जो फ़िल्में देखकर अपनी राय बनाने में यकीन करते हों और हर बार की तरह कहूँगी कि हो सकता है उनकी राय मुझसे अलग हो। जहाँ तक परिवार से प्यार करने का प्रश्न है और यदि आप वो करते हैं, तो आपके लिए कोई समस्या ही नहीं है। हम सबको अपने-अपने जीवन का सम्मान करना सीखना चाहिए। शक, मतभेद, मामूली झगड़ों की वज़ह से इसे तबाह नहीं कर लेना चाहिए। हमें इन सारी चीजों से निपटना आना चाहिए। यहाँ तक कि संबंधों के बीच जब यह लगने लगे कि जीवनयापन दूभर हो रहा है, तब जीने के नए और उत्साहजनक तरीके और रास्ते तैयार कर लेने चाहिए। यह जीवन जीने के लिए मिला है, इसके साथ कुछ उत्तरदायित्व बंधे हुए हैं, हमें उन सबका सम्मान करना चाहिए।
दूसरी देखी गयी फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ ने निराश नहीं किया। चन्द्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में बनी यह फिल्म बहुत सारे प्रक्रियागत झंझटों और व्यावहारिक चुनौतियों से जूझते हुए प्रदर्शित हुई है। इसपर विस्तार से दूसरे पोस्ट में लिखूँगी। बहरहाल इतना जरूर कहूँगी कि यह फिल्म देखने लायक है। साहित्य पर फिल्म बना पाने की हिम्मत कम फिल्मकार करते हैं। चन्द्रप्रकाश द्विवेदी न सिर्फ हिम्मत करते हैं बल्कि इसे एक अच्छी फिल्म में तब्दील करने का सामर्थ्य भी रखते हैं। उनकी पहली फिल्म ‘पिंजर’ भी इसका उदाहरण है। हम अपने पैसे खर्च कर इस तरह कि फिल्में देखेंगे तभी फिल्माकारों में इस तरह की फिल्में बनाने की हिम्मत बची रहेगी।
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