Tuesday, 20 November 2018

कई कसौटियों पर खरी उतरती है 'मोहल्ला अस्सी'


'पीहू' की कमाई की तुलना में 'मोहल्ला अस्सी' का पिछड़ना इस बात का संकेत नहीं है कि 'मोहल्ला अस्सी' पसंद नहीं की जा रही। दरअसल इसका उल्टा है, सारा खेल प्रमोशंस का है। 'पीहू' के प्रमोशंस और प्रमोशनल स्टंट्स की तुलना में 'मोहल्ला अस्सी' के प्रमोशंस आपको दिखेंगे ही नहीं होंगे! आखिर कब तक प्रमोशंस फिल्म को चलाएंगे! कम से कम फिल्म रिलीज़ के शुरुआती तीन दिनों तक तो हम प्रमोशंस के धोखे से लूटे ही जा सकते हैं!
'मोहल्ला अस्सी' के फिल्मांकन का सूक्ष्म से सूक्ष्म अन्वेषण भी आपको निराश नहीं करेगा। धर्मनाथ पांडे की ग़रीबी आपको उनके साफ-सुथरे कुर्ते में नहीं बल्कि उसके टूटे हुए बटनों में दिखेगी! इसी तरह उनकी पत्नी सावित्री को उनकी दोहराई जाने वाली मामूली किस्म की साड़ियों में देखेंगे। पप्पू की दुकान पर कुल्हड़ में मिलने वाली चाय दौर बदलने पर कांच के गिलास में मिलने लगती है! यही नहीं फिल्म के बैकग्राउंड में बजने वाले श्लोक, अध्यापकीय व्याख्या के लिए लिए गए श्लोक, रामचरितमानस की चौपाइयां और कई बार बहुत साधारण से लगने वाले संवाद भी गूढ़ और व्यापक अर्थों को व्यंजित करते हैं, अगर इन्हें समझा जा सके। बहरहाल कहने को ऐसी बहुत सी बातें हैं लेकिन इन्हें किसी और से सुनने की बजाय खुद देखकर ज़्यादा अच्छे से महसूस किया जा सकता है। इस फिल्म के कैमरामैन विजय अरोड़ा के काम की तारीफ इस रूप में भी हो रही है कि उन्होंने बनारस या अस्सी को बहुत ही जीवंत रूप से उतारा है।
कुछ लोगों को इस फिल्म का कई-कई पहलुओं को छूना इसकी कमज़ोरी लग रही है, लेकिन वास्तव में यह इस फिल्म की खासियत है कि वो बहुत सारे पहलुओं को सफलतापूर्वक समेट पाती है और एक के बाद एक आने वाले दृश्य कहीं से असंगत नहीं लगते। हां ये ज़रूर है कि इन सभी पहलुओं को समझने के लिए आपके पास देश, समाज, इतिहास, राजनीति, धर्म आदि की बुनियादी जानकारी का होना ज़रूरी है।
साहित्य और सिनेमा की विद्यार्थी होने के नाते मेरी दिलचस्पी जिस बात में सबसे अधिक रही मैं अब उस पर आती हूं। मूल उपन्यास के लेखक काशीनाथ सिंह ने फिल्म देखने के बाद यह प्रतिक्रिया दी है कि फिल्मकार ने मूल कथानक के साथ बिना कोई तोड़-मरोड़ किए एक उम्दा फिल्म बनाई है जो उनके उपन्यास से भी अधिक जीवंत है।

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