Monday 8 September 2014

ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती !

साहिर और गुरूदत्त
1957 में गुरुदत्त की फिल्म प्यासारिलीज़ हुई थी । इस फिल्म की सफलता में साहिर के गीतों की महत्वपूर्ण भूमिका है । आजादी की खुमारी में चूर उत्साही देशवासियों को आइना दिखाने का काम साहिर ने बड़ी सहजता से कर दिया था । प्यासा में समाज के बदलते चरित्र को बेहद संजीदगी से दर्शा पाने में निर्देशक गुरूदत्त को जो सफलता मिली है, वही सफलता साहिर को अपने गीतों के माध्यम से मिली है । दुनिया पर आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी और मौकापरस्त लोगों के लगातार बढ़ते प्रभुत्व को कुछ दृश्यों के सहारे बहुत प्रभावशाली तरीके से फिल्माया गया है । जब सत्ता की आलोचना करके एक बड़ा क्रांतिकारी काम किया जा सकता था, तब गुरूदत्त ने समाज के चरित्र को अपना विषय बनाया । इस सिनेमा में उन्होंने सत्ता की आलोचना के बजाय समाज में बेहतर इंसानों की जरूरत को दर्शा पाने की सफल कोशिश की है । यह सिनेमा जिस लिजलिजे समाज को दिखाता है, वह किसी संवेदनशील व्यक्ति को तोड़ कर रख देने के लिए काफी है । ऐसे में जिस समाज की चिंता करने की जरूरत है, उस समाज में कैंसर की तरह पसर रही आंतरिक विसंगतियों पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी है । आज भी समाज की आंतरिक कमजोरियाँ ही एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण की सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं । 
महत्वपूर्ण यह है कि इस सिनेमा के नायक को संवेदनहीन समाज का विकल्प बाजार में धकेल दी गयी एक औरत में मिलता है । नायक इस असलियत से वाकिफ हो चुका होता है कि हम जिसे समाज कह कर उसका हिस्सा बने रहते हैं वह दरअसल असामाजिक लोगों का हुजूम है ।
'प्यासा' में वहीदा और गुरुदत्त 
इसलिए वह दौलत और शोहरत के लोभ में नहीं पड़ता । तंगहाली और ज़िल्लत को लगातार सहते रहने को मजबूर रहे नायक के लिए जब एश-ओ-आराम का अवसर आता है, तब वह उसे ठुकराकर पहचान के लोगों से दूर गुमनाम जिंदगी अपने लिए चुनता है । उस समय उसके साथ बिना सोचे निकल पड़ने वाली लड़की वही होती है जो उसे औरतों के बाज़ार में मिलती है । 
साहिर ने एक संवेदनशील व्यक्ति के क्षोभ को जो स्वर दिया है वह अद्वितीय है । ऐसी दुनिया के मिल जाने से भी क्या जो मुर्दापरस्तों की दुनिया है ! काश कि नायक में इस दुनिया को बदल पाने का धैर्य होता, वैसे सबसे इतनी मज़बूती की उम्मीद करना बेमानी है । साहिर ने फिर भी, ऐसी दुनिया में तोड़फोड़ मचा देने का आह्वान कर देने वाला रूपक रच ही दिया है ।जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया का आत्मालाप कर रहा नायक जितना इस दुनिया से विरक्त दिखाई देता है, अनुरक्ति का उतना ही दबाव दर्शकों पर छोड़ जाने में वह कामयाब हो जाता है । नायक का पलायन उन सवालों का पलायन भी नहीं है, जिसे वह उठाता है । यह दुनिया जैसी भी है हमारी वास्तविकता है । हमें यहीं रहना है । रहना है तो उसे बेहतर बनाने के लिए जूझते भी रहना होगा । यह गुरूदत्त का कौशल है कि वे नायक की नायकनुमा छवि गढ़ने के बजाय दर्शकों में नायकत्व उभारने की स्थितियाँ बनाने की कोशिश करते हैं । साहिर का कमाल यह है कि उनके लफ्ज़ देर तक हमारे दिलो दिमाग में गूँजते रहते हैं । देश की बदहाली और शर्मसार होती मनुष्यता की भयावह तस्वीर जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं गीत में खींची गयी है । यह दुनिया अगर मिल भी जाए गीत में इस बदहाली का सबसे बड़ा कारण भी खोज लिया गया है, वह है हमारी मुर्दापरस्ती । यह हमें ही तय करना है कि आखिर कब तक हम मुर्दापरस्त बने रहेंगे !

                                           



                                                      # Hindi Cinema, Guru Dutt, Sahir Ludhianvi, Pyasa, Cinema/Film and Literature, Hindi film songs 

2 comments:

  1. गुरुदत्‍त और उनके समकालीन सिनेमाकारों ने जो रचा, उसकी खूबी ही तो है कि आपने उनके जीवनोत्‍तर समय में उसे पहचाना। और ऐसे पहचाना कि उस सिनेमा का साहित्‍य ही परोस दिया, वह भी एकदम संवेदनशील मनुष्‍य के अनुभव के स्‍तर पर। बहुत सुन्‍दर।

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  2. शुक्रिया विकेश कुमार जी।

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