![]() |
गोष्ठी में बोलते हुए लोकनाथ यशवंत
|
20 और 21 अक्टूबर 2014 को हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में ‘समकालीन कविता और केदारनाथ सिंह’ पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था । पहले दिन का
कार्यक्रम समापन की ओर बढ़ रहा था, श्रोता ऊब चुके थे । एक
वक्ता ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा । उसके आते ही पूरा सभागार ‘रिफ्रेश’ हो गया । मराठी कवि-चिंतक लोकनाथ यशवंत भी
आये तो थे केदारनाथ सिंह पर ही बोलने लेकिन उन्होंने केदार जी का जिक्र तक नहीं
किया । उनका मन खिन्न था और उन्होंने अपना रोष जमकर प्रकट किया । सभागार में
केदारनाथ सिंह और अरुण कमल भी थे, उनकी परवाह किये बगैर वे
धड़ाधड़ बोलते चले गए । उन्होंने कहा- “मुझे कवि विद्वानों के
बीच आकर खुशी हो रही है । भाग्य, सौभागय मैं नहीं बोलूँगा
क्योंकि ये हमारे दलित साहित्य में नहीं चलता
।”
उन्होंने कहा – “हिंदी के लोग जमीनी बात नहीं करते हवा में बातें करते हैं । ऐसी जिनका हम
जैसे आम आदमी से कोई सम्बन्ध नहीं । सुबह
से सभागार में बैठा हूँ जो आ रहा गोल-गोल बातें किये जा रहा है मुझे तो कुछ समझ
नहीं आ रहा । अनामिका जी आई सब कह रहे थे बहुत अच्छा बोलीं । लेकिन क्या बोली वो ?
उनकी गोल-गोल बातें मेरी तो बिलकुल समझ में नहीं आयीं । अरे किसी
निर्णय पर तो पहुँचो । बस गोल-गोल-गोल-गोल ।”
“तुम लोग क्या लिखे हिन्दी साहित्य में ? कोई बात
कहनी हो तो विदेश के लोगों को कोट करते है, खुद को क्यों
नहीं बनाते इंटरनेशनल लेवेल के । कैसे बनेगा !! इधर तो परियों राजाओं की बात से फुर्सत
हो तब तो । इधर आम आदमी की बात ही नहीं होती । आजकल मैं क्या देखता ऐसे कि हिंदी
का लेखक साहित्यकार फोटो खिंचवाते हैं, चेहरे पर हाथ रखकर,
हाथ में पेन होता है, जैसे बहुत कुछ लिख देंगे,
अरे क्या सोच रहा है तूँ अब तक कुछ नहीं लिखा तो अब क्या लिख देंगे ?
मेरे को एक बात समझ में आती है कि अभी तक मनुस्मृति से ही बाहर नहीं
निकल पाये ये लोग !!”
देश के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ को यह कहते हुए उन्होंने आड़े
हाथों लिया कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को जिस ‘गीतांजलि’ पर पुरस्कार मिला वह उनकी मौलिक रचना नहीं
थी । वह भी वेदों पुराणों को उन्होंने अपने ढंग से जैसा समझा वही लिख दिया । उसमें
भी आम आदमी की बात नहीं थी । यही नहीं वह पुरस्कार भी उनका अपना नहीं था जो उन्हें
मिला । इस पुरस्कार के लिए तो खलील जिब्रान चयनित हुए थे । लेकिन तब प्रथम
विश्वयुद्ध में उनका देश मित्र राष्ट्रों के साथ नहीं था इसलिए उनका नाम हटा दिया
गया ,फिर वे लोग सोच में पड़ गए कि किसे इस बार यह पुरस्कार दिया जाए तो अचानक
उन्हें भारत का ध्यान आया और यह पुरस्कार दे दिया टैगोर को । यह पुरस्कार भी हमारा
अपना नहीं है ।
लोकनाथ ने कहा- “आदमी की
उमर अस्सी साल है । मैं पचास का हो गया हूँ । बीस-तीस बरस और जीना, तो झूठ काहे को बोलूँ । बिना लाग-लपेट के बोलता मैं । दलित साहित्य के आने
से पहले का सारा साहित्य ऐसे बेकार है । हमारे काम का नहीं है ।”
हालाँकि लोकनाथ यशवंत की बातें बहुत संतुलित नहीं थी । उनका हिन्दी साहित्य से
परिचय बहुत कम है । लेकिन ऐसी संगोष्ठियों से, हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों से
हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों और आलोचकों की जो छवि बनती है वही लोकनाथ की बातों
से व्यक्त हो रहा था । यह साहित्य को देखने की दलित सौंदर्य दृष्टि थी जो पारंपरिक
सौंदर्य और वक्रोक्ति को खारिज करती है । केदारनाथ सिंह पर हुई दो दिवसीय गोष्ठी में एक भी वक्ता ने केदारनाथ सिंह के लेखन की कमियों की ओर इशारा तक नहीं किया ।
गोष्ठियों का प्रशस्ति-समारोह में बदल जाना दुखद होता है । ऐसे में लोकनाथ यशवंत
को कितने लोगों ने गंभीरता से समझने की कोशिश की होगी, मैं नहीं जानती लेकिन ऐसे बेबाक वक्ता हमें
अपनी समीक्षा की प्रेरणा तो देते ही हैं ।
![]() |
अगली पंक्ति में रोहिताश्व, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल और गोविन्द प्रसाद पीछे अन्य
विद्वान और श्रोता
नोट- यशवंत की बातों को स्मृति के आधार पर कोट किया गया है । उनकी बातों को उन्हीं के लहजे में रखने की कोशिश की गयी है । फोटो सौजन्य - राज बोलचेटवार ।
# National Seminar on Hindi Poet Kedarnath Singh, Department of Hindi, University of Hyderabad, Loknath Yashwant, Dalit Scholar, Hindi literature
No comments:
Post a Comment