मैं
दिल्ली में पैदा हुई । मेरे पिता पंजाब से उखड़ कर दिल्ली आये थे । दिल्ली से मुझे
बहुत प्यार है । लेकिन लोगों को जब यह बताती हूँ कि दिल्ली की हूँ तो साथ में जोड़
देती हूँ कि मूलतः पंजाब से हूँ । दरअसल दिल्ली उखड़े-उजड़े लोगों का ही शहर है ।
दिल्ली शहर यूँ ही नहीं बस गया था, बसाया गया
था । कई बार बसा कई बार उजड़ा। इसलिए दिल्ली में अपनी जड़ें तलाशना व्यर्थ है ।
दिल्ली
में रह रहे लोग कहीं न कहीं बाहरी हैं । चूंकि दिल्ली का कोई सगा नहीं है, इसलिए दिल्ली सबको बड़े प्यार से गले लगाती है । लेकिन चूँकि दिल्ली सगे के
मोह से मुक्त है, इसलिए किसी को वह खुद से चिपकाए रखने की
गारंटी भी नहीं देती। इतिहास गवाह है कि दिल्ली किसी की होकर नहीं रही । तोमर
राजाओं, चौहानों, सुल्तानों और बादशाहों
की भी नहीं । दिल्ली सबकी है लेकिन दिल्ली पर अधिकार का
अहंकार कोई नहीं पाल सकता ।
मैंने शुरू से यह अहंकार नहीं पाला ।
इसलिए जब दिल्ली-बदर हुई तो इसे ख़ुद के विस्तार और विकास का अवसर माना । विभिन्न कारणों से दिल्ली-बदर होने वाले मुझ जैसे कई लोग हैं
। बहरहाल कुछ लोगों को यह भ्रम होता है (यह भ्रम इतिहास में कई लोगों को कई बार हुआ
है।) कि दिल्ली उन्हीं की है । दुख इस बात का है कि दिल्ली ऐसे ही लोगों के
हाथों में पड़ती रही, जो यह मानते हैं कि दिल्ली
उन्हीं की जागीर है । दिल्ली की स्वाभाविक मिठास में कड़वाहट घोलने वाले लोगों की
एक बड़ी जमात है । भगवत रावत की कविता दिल्ली की 'दिल्ली'
इसी लिए तो ग़मगीन है ।
# Bhagvat Rawat, Dilli, Claim on Delhi, History of Delhi
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