जब
हम किसी उत्सव या मेले में शरीक होकर लौटते हैं तो कुछ समय तक वहां का शोर-शराबा, हो-हल्ला हमारे कानो में बजता रहता है और लगता है गोया अभी भी हम वहीं
हों। ऐसा ही अनुभव होता है ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखने के कुछ समय बाद तक। दरअसल ये समझने में बहुत समय लग जाता है कि आखिर
हमने क्या देखा! उसका शोर-गुल और हो-हल्ला कानों के आस-पास एक वैक्यूम बना देता है
और धीरे-धीरे वह शोर हमारी चेतना पर भी छाने लगता है, और
फ़िल्म में देखे-समझे सभी दृश्य-पात्र गड्ड-मड्ड होने लगते हैं।
फिल्म
कहानी से अधिक एक्टिंग और संवादों के बल पर खड़ी है। तनु की हमशक्ल ‘दत्तो’ का किरदार दमदार है। कंगना की एक्टिंग के दम
पर ही इस फिल्म का सारा दारोमदार खड़ा है। डबल रोल होने पर भी एक पल के लिए भी यह
नहीं लगता कि यह एक ही व्यक्ति द्वारा निभाये गए दो रोल हैं। तनु और दत्तो दोनों
अलग-अलग अपना अस्तित्व बनाये रखने में कामयाब हो सके हैं। ये अलग बात है कि दत्तो
तनु पर कुछ भारी ही पड़ी है।
गीत-संगीत
कैची है। पर इसके गीत धूम-धड़ाके वाली शादियों और डीजे पार्टियों में गाये जाने
वाले गीत ही बन सकेंगे। कोई ऐसा गीत नहीं जो सुकून दे सके। फिल्म के लगभग सभी
दृश्यों में भरपूर संवादों और संगीत का प्रयोग किया गया है, कहीं भी मौन की ज़रूरत महसूस नहीं की गयी है। सब भागते हुए प्रतीत होते हैं,
जैसे निर्देशक ने सभी एक्टरों के बीच यह होड़ लगवा दी हो कि कौन जनता
को कितना अधिक ‘मनोरंजित’ कर सकता है।
बहरहाल
निर्देशक आनंद एल राय इस फिल्म के माध्यम से क्या दिखाना चाहते हैं यह स्पष्ट नहीं
हो सका है। जिन बातों का फिल्म के आरम्भ में तनु विरोध करती है जिनके लिए वह अपने
पति को पागलखाने छोड़ कर खुद भारत चली आती है अंत में फिर से उसी पति को पाने के
लिए एड़ी-चोटी का जोर क्यों लगाती है समझ से परे है। फिल्म के आरम्भ में
मनोचिकित्सक के पास मनु के खिलाफ आरोप लगाते हुए वह कहती है कि मैं तो बच्ची थी और
राजा अवस्थी से प्यार करती थी, इस आदमी ने धोखे से मुझसे शादी की, भारत लौटने पर उसे राजा अवस्थी दुबारा मिल
जाता है। वो उसके साथ घूमती-टहलती है, सिनेमा देखती है,
फिर क्यों अपनी गलती को सुधार उससे शादी नहीं कर लेती! और ये भी
नहीं तो शादी ही न कर अकेले रहने का निर्णय भी वह ले सकती थी ! अपनी बहन को वो
शादी करने से मना करती है और उसे अपनी ‘मोनोटोनी’ तोड़ने की सलाह देती है। पर फिर वह स्वयं क्यों उसी मोनोटोनी में लौटना
चाहती है जिससे बोर होकर उनका सम्बन्ध टूटा था।
उधर
मनु का भी यही हाल है वह शादी के नाम से नफरत करने लगा है। अपने दोस्त पप्पी को भी
शादी न करने की सलाह देता है पर फिर कुसुम सांगवान उर्फ़ दत्तो के प्यार में पड़कर
दुबारा शादी के फेर में ही पड़ता है!
अगर
निर्देशक शुरू से ही नायिका को इतना बोल्ड दिखाते रहे हैं तो फिर वह कोई बोल्ड
निर्णय क्यों नहीं ले पाती? उसकी ‘बोल्डनेस’
और उसका ‘स्वैगर’ सिर्फ
सिगरेट-शराब पीने, हो-हल्ला करने, लड़कों
के साथ घूमने तक ही सीमित रहता है। दरअसल निर्देशक यह स्वयं नहीं जानते कि वह यह
सीक्वल क्यों बना रहे हैं! यदि उन्हें शादी के बाद की स्थितियां ही दिखानी थी तो
वह बहुत कुछ दिखा सकते थे। बहुत सी समस्याएँ हैं जो एक दंपत्ति के मध्य शादी के
बाद होती हैं। विवाहोपरांत पति-पत्नी सम्बन्धों पर हिंदी में बहुत सी फ़िल्में बनी
हैं और बहुत बेहतरीन फ़िल्में बनी हैं। लेकिन इसमें तनु की समस्या यह है कि उसका
पति बोरिंग है। केवल यही वजह है उसके पास अपने पति को छोड़ने की! आखिर वह कोई ठोस
वजह क्यों नहीं तलाश पायी! और यदि उसके पास यही वजह भी है तो फिर अंत में वह उसी
बोरियत भरी ज़िन्दगी में दुबारा क्यों लौटना चाहती है! वह कोई ठोस निर्णय क्यों
नहीं ले पाती!
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