हम लोग नए-नए एम.ए में आये थे । उन दिनों का
उत्साह ही कुछ अलग था । हरदम चहकते रहते थे । वो ज़िन्दगी के बेहद सुनहरे दिन थे ।
कोर्स भी इतना दिलचस्प था कि उसे पढ़ने, उसपर बातचीत, बहस करने में बड़ा आनंद आता था । नाच्यौ बहुत गोपाल और कसप जैसे उपन्यास, टेपचू, तिरिछ, ज़िन्दगी
और गुलाब के फूल सरीखी कहानियाँ, जूठन, आवारा मसीहा जैसी आत्मकथाएं, आधे-अधूरे जैसे
नाटक, जानकीवल्लभ शास्त्री के पत्र और राहुल
सांस्कृत्यायन के यात्रा वृत्तांत सब कुछ बेहद रुचिकर था । उसपर भी उन दिनों जिस
उपन्यास की सबसे अधिक धूम थी, वह था मनोहरश्याम जोशी का 'कसप' ।
‘कसप’ को
लेकर लगभग पूरी क्लास बेहद उत्साहित रहती थी । ‘कसप’ की क्लास में सबसे अधिक संख्या में छात्र जुटते थे, मानों
पढ़ने को लेकर कितने गंभीर हों! जहाँ देखो, जिधर देखो सब कसप पर ही चर्चाएँ कर रहे होते थे । मेरा अनुमान है कि कोर्स
में जितनी भी किताबें थीं उनमें सबसे पहले और सबसे अधिक कसप ही पढ़ा गया होगा ।
उसके कई कारण थे एक तो उस पर इतनी चर्चाएँ होती थीं कि जिसे न भी पढ़ने का मन हो वह
भी पढ़े, दूसरे वे एकदम नवीन शैली में लिखा गया रहस्य और
रोमांच से भरपूर अलग सा उपन्यास था । एक-आध को छोड़ दिया जाए तो हम में से किसी ने
भी कसप पहले से नहीं पढ़ा हुआ था । और अगर एम.ए के कोर्स में नहीं होता तो शायद
इतनी संख्या में और इतने उत्साह के साथ वह कभी नहीं पढ़ा जाता ।
हम पर तो कसप का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था । हम
लोग दिन-रात उसी की बातें करते थे, उसके दृश्यों को याद कर-कर
के कभी ठहाके लगाते तो कभी दबी आवाज़ में हँसा करते थे । कसप का ऐसा खुमार था कि हम
एक-दूसरे को ‘जिलेम्बू’ कहकर
संबोधित करने लगे थे और जल्दी ही हमारा ग्रुप ‘जिलेम्बू ग्रुप’ के नाम से विख्यात हो गया था । फ़िल्में
लोगों पर इतना असर करती हैं ये तो देखते-सुनते रहते ही थे, लेकिन किसी किताब, उपन्यास आदि को लेकर भी ऐसी
खुमारी हो सकती है ये उन्हीं दिनों जाना था । उससे पहले और उसके बाद वे दिन और वो
खुमारी दुबारा कभी महसूस नहीं हुई । आज भी ‘जिलेम्बू’ शब्द याद आता है तो हिया जुड़ा जाता है ।
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