Saturday, 19 September 2015

जिलेम्बू मारगाँठ

हम लोग नए-नए एम.ए में आये थे । उन दिनों का उत्साह ही कुछ अलग था । हरदम चहकते रहते थे । वो ज़िन्दगी के बेहद सुनहरे दिन थे । कोर्स भी इतना दिलचस्प था कि उसे पढ़नेउसपर बातचीतबहस करने में बड़ा आनंद आता था । नाच्यौ बहुत गोपाल और कसप जैसे उपन्यासटेपचूतिरिछज़िन्दगी और गुलाब के फूल सरीखी कहानियाँजूठनआवारा मसीहा जैसी आत्मकथाएंआधे-अधूरे जैसे नाटकजानकीवल्लभ शास्त्री के पत्र और राहुल सांस्कृत्यायन के यात्रा वृत्तांत सब कुछ बेहद रुचिकर था । उसपर भी उन दिनों जिस उपन्यास की सबसे अधिक धूम थी, वह था मनोहरश्याम जोशी का 'कसप'
कसप’ को लेकर लगभग पूरी क्लास बेहद उत्साहित रहती थी । ‘कसप’ की क्लास में सबसे अधिक संख्या में छात्र जुटते थे, मानों पढ़ने को लेकर कितने गंभीर हों! जहाँ देखोजिधर देखो सब कसप पर ही चर्चाएँ कर रहे होते थे । मेरा अनुमान है कि कोर्स में जितनी भी किताबें थीं उनमें सबसे पहले और सबसे अधिक कसप ही पढ़ा गया होगा । उसके कई कारण थे एक तो उस पर इतनी चर्चाएँ होती थीं कि जिसे न भी पढ़ने का मन हो वह भी पढ़ेदूसरे वे एकदम नवीन शैली में लिखा गया रहस्य और रोमांच से भरपूर अलग सा उपन्यास था । एक-आध को छोड़ दिया जाए तो हम में से किसी ने भी कसप पहले से नहीं पढ़ा हुआ था । और अगर एम.ए के कोर्स में नहीं होता तो शायद इतनी संख्या में और इतने उत्साह के साथ वह कभी नहीं पढ़ा जाता ।
हम पर तो कसप का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था । हम लोग दिन-रात उसी की बातें करते थेउसके दृश्यों को याद कर-कर के कभी ठहाके लगाते तो कभी दबी आवाज़ में हँसा करते थे । कसप का ऐसा खुमार था कि हम एक-दूसरे को ‘जिलेम्बू’ कहकर संबोधित करने लगे थे और जल्दी ही हमारा ग्रुप ‘जिलेम्बू ग्रुप’ के नाम से विख्यात हो गया था । फ़िल्में लोगों पर इतना असर करती हैं ये तो देखते-सुनते रहते ही थेलेकिन किसी किताबउपन्यास आदि को लेकर भी ऐसी खुमारी हो सकती है ये उन्हीं दिनों जाना था । उससे पहले और उसके बाद वे दिन और वो खुमारी दुबारा कभी महसूस नहीं हुई । आज भी ‘जिलेम्बू’ शब्द याद आता है तो हिया जुड़ा जाता है ।

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