प्रकाशकों-संपादकों
के गैरज़िम्मेदार रवैये से जुड़े कई कड़वे अनुभव मुझे समय-समय पर होते रहे हैं। उदाहरण के लिए एक निजी स्वामित्व वाली पत्रिका ने एक साल बीत जाने के बाद मेरा एक
लेख छापा। इसी तरह वर्धा से प्रकाशित होने जा रही सिनेमा पर केन्द्रित एक किताब के
लिए मेरा एक लेख स्वीकृत हुआ। किताब शीघ्र प्रकाशित होनी थी, लेकिन जब साल भर बाद
भी प्रकाशित नहीं हुई तो मैंने अपनी रचना वापस मांगी। आग्रह के साथ रचना वापस नहीं
की गयी, और कहा गया कि कुछ दिक्कतें थी, अब जल्दी ही किताब आ जाएगी – किताब आज
लगभग तीन साल बाद भी नहीं आयी है। दिल्ली के एक शोधार्थी द्वारा सम्पादित-प्रकाशित
एक पत्रिका के लिए सिनेमा के गीतों पर केन्द्रित एक साक्षात्कार भेजा था। उसने कहा
कि सिनेमा पर एक पत्रिका का विशेषांक आ रहा है, उस पत्रिका के संपादक ने मुझसे कुछ
रचनाएं मांगी तो मैंने तुम्हारा साक्षात्कार भेज दिया। यह अनिधिकृत चेष्टा थी। फिर
भी यह मान कर कि सिनेमा पर केन्द्रित अंक है तो पाठकों को एक साथ अधिक सामग्री मिल
सकेगी, मैंने आपत्ति नहीं जताई। इस पत्रिका का विशेषांक तय समय के महीनों बाद तक
नहीं आया। आपत्ति जताने पर तीखे विवाद का अपमानजनक अनुभव हुआ। ऐसे और भी कई
अपमानजनक और हतोत्साहित करने वाले अनुभव हैं!

फोन
डिस्कनेक्ट होने के बाद मैं बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। मेरे खयाल से फोन उठाने वाली की बातें भी असंगत थीं। कुछ देर बाद फिर फोन करके मैंने संपादक से
बात करवाने को कहा। पहले तो अटेंडर बात टाल रही थीं फिर यह कहा कि संपादक से तो
बात नहीं हो सकती है वे यहाँ होती ही नहीं हैं। बहुत ज़ोर देने पर एक महिला पदाधिकारी
से बात करायी गयी। पारदर्शी सरकार के दावे का ध्यान दिलाने और बार-बार के ई-मेल
का जवाब नहीं मिलने और फोन अटेंडर की रूखाई का उल्लेख करने पर वे ई-मेल अकाउंट में
मेरी रचना खोजने पर राजी हुई। फिर कहने लगी गलत फहमी में अटेंडर ने ऐसा कह दिया-
आपकी रचना हम देख ही नहीं पाये थे। मैंने पूछा कि क्या रचनाओं के आप प्रिंट नहीं
लेते? बार-बार किये गये ई-मेल भी नहीं पढ़ते? तो उनका जवाब था कि- क्या करें
प्रिंटर ही खराब है, और यह कि इतने सारे ई-मेल कौन देखेगा या जवाब देगा। मैंने
पूछा इसका मतलब यह हुआ कि रचनाएँ ई-मेल से नहीं डाक से भेजनी चाहिए! जवाब मिला-
अरे नहीं-नहीं, डाक से भेजी गयी रचना तो हम और भी नहीं छापते। उसे तो कंपोज करने
का भी झंझट रहता है। ऐसा कर सकते हैं कि ई-मेल से रचना भेजने के बाद फोन कर के मुझे बता दिया कीजिए तो
मैं समय मिलने पर रचना देख लूँगी। इसके बाद उन्होंने कहा कि हम आपकी रचना संपादक
मंडली के पास भेज रहे हैं। तकरीबन पंद्रह दिनों बाद ई-मेल से पूछने पर अपेक्षा के
मुताबिक जवाब आया (रस्म अदायगी का मुझे अनुमान था।) कि ‘मैडम
आपका लेख पढ़ लिया गया है। हमारी पत्रिका में इसका उपयोग नहीं हो पाएगा।’ रचना की
अस्वीकृति का दुख नहीं था- उस यातना का दुख अवश्य हुआ जिससे मैं उन ढाई महीनों में
गुजरी। फोन पर बात करने वाली पदाधिकारी ने कर्मचारियों की कमी के अलावा तकनीकी
असुविधाओं का भी जिक्र किया जो अपने आप में अकादमी के प्रति सरकार की उदासीनता, सरकारी
धन के अकादमी द्वारा गबन किये जाने और संस्था के पदाधिकारियों की भारी लापरवाही की
ओर इशारा करता है।
एक
सरकारी पत्रिका के भरे-पूरे और जनता के पैसे से चलने वाले कार्यालय से भी किसी
रचना और रचनाकार को ऐसा रवैया झेलना पड़े तो वह निजी पत्रिकाओं के दुर्व्यवहारों
पर किस हक़ से मुखर हो पाएगा! ऐसा लगता है जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी
संपादन और प्रकाशन का पूरा व्यवसाय अशिष्ट, अहंकारी, अयोग्य और भ्रष्ट लोगों के
जिम्मे है।
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