हिन्दी आलोचना के
क्षेत्र में नामवर सिंह जितने दशकों तक सक्रिय और प्रभावी रहे वह आश्चर्यचकित करता
है! एक प्राध्यापक के बतौर भी उनकी जो प्रतिष्ठा रही है वह भी किसी अन्य अध्यापक
के लिए रश्क का विषय हो सकती है। हिन्दी में बिरले ही ऐसे प्रोफेसर होंगे जो इतनी
तैयारी और विशेषज्ञता के साथ क्लासरूम में आते हों कि उनके बोलकर पढ़ाए गए लगभग हर
शब्द को किताब की शक्ल में ढाला जा सके!
इस
विद्वता और प्रतिष्ठा के अलावा नामवर सिंह का एक पक्ष हिन्दी विभाग की अकादमिक
राजनीति से भी जुड़ता है। हमने जब से विश्वविद्यालयों में पढ़ना शुरू किया, इसे किंवदंतियों की तरह सुनते रहे कि एक लम्बे दौर तक नामवर सिंह देशभर के
विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों को प्रभावित करते रहे थे, इसलिए उनसे उपकृत लोगों की लम्बी सूची है तो निश्चित रूप से तिरस्कृत
लोगों की भी लम्बी सूची होगी! दुखद रूप से उपकार और तिरस्कार का यह सिलसिला
नियुक्ति प्रक्रियाओं में आज भी बदस्तूर जारी है। नामवर सिंह को याद करते हुए
लोगों को यह पहलू भी याद आना ही चाहिए।
एक
लम्बी ज़िन्दगी उन्हें मिली और सबसे बड़ी बात कि अंतिम कुछ दिनों को छोड़कर वे
लगभग इस पूरी अवधि में स्वस्थ और सक्रिय रहे। वे कुछ दिनों से बीमार थे। आज सुबह
ही यह खबर पढ़ी की कल रात उनका निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि!
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