Thursday, 21 February 2019

मेरी लघुकथा 'समोसा' :)

कहानी, कविता जैसी साहित्यिक विधाओं की मैं एक तरह से मन्त्रमुग्ध पाठक रही हूँ। मुझे लगता रहा है कि यह सब लिखना कम से कम मेरे वश की बात नहीं है! मैं कुछ टिप्पणियां या लेख लिखकर अपनी बात कह पाऊं यही बहुत लगता है। हां किस्सागोई का आकर्षण और लघुकथाओं का आकार इस फॉर्म में अपनी बात कहने के लिए कभी-कभी प्रेरित ज़रूर करता रहा है, लेकिन मुझे पता है कि लघुकथा वास्तव में एक बहुत ही कॉम्पैक्ट विधा है, और यह बहुत अधिक रचनात्मक कुशलता की मांग करती है, जिसका मुझमें नितांत अभाव है।
एक शाम मेरी आँखों के सामने एक घटना घटी। मैने एक मासूम बच्चे को अपने ही माता-पिता के भाषाई हीनताबोध का शिकार बनते हुए देखा था। मैंने उस बच्चे को सहमते हुए देखा और देखते-देखते ही उसकी सहजता जिस तरह गायब हो गयी, उसने मुझे खासा विचलित किया था। उस दिन इस घटना को मैंने यूँ ही नोट करके रख लिया था। बाद में इसे ही थोड़ी सी काट-जोड़ के साथ मैंने एक लघुकथा की शक्ल देनी चाही। हालांकि मुझे पूरा संदेह रहा कि यह लघुकथा बन भी सकी है या नहीं!
पिछले दिनों रचनाकार.आर्ग' ने एक लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया था। मैंने इस रचना को उस प्रतियोगिता में भेज दिया। आज ईमेल से सूचना मिली कि प्रथम, द्वितीय या तृतीय तो नहीं लेकिन विशेष पुरस्कार के लिए जिन चार लघुकथाओं को चुना गया, उसमें मेरी लघुकथा- समोसाभी है। मुझे तो इसी बात की ख़ुशी है कि मैंने जो लिखा उसे कम से कम लघुकथा के रूप में पहचाना गया! संयोग ही है कि इस लघुकथा के पीछे भाषाई हीनता बोध की एक घटना है, और आज मातृभाषा दिवस भी है।


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