Thursday 4 June 2020

अलविदा बासु दा!

साल 2018 के आखिरी महीने की बात है। किसी सुबह करीब ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे का समय रहा होगा। मैंने अपने मोबाइल से मुंबई के एक लैंडलाइन नंबर पर फ़ोन लगाया। घंटी बजी। एक महिला ने फ़ोन उठाया। अभिवादन के बाद मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि क्या मेरी बासु दा से बात हो सकती है?’ महिला ने जवाब दिया- वे अब फ़ोन पर किसी से बात नहीं करते’ तो मैंने उन्हें कहा कि क्या उनसे मिलने का समय मिल सकता है?’ जवाब में वो महिला बोलीं कि नहीं! वे अब बिस्तर से उठ नहीं पाते और किसी से मिलते-जुलते भी नहीं हैं। ये कहते हुए उन्होंने फ़ोन रख दिया।
अब मैं सिर्फ अफ़सोस कर सकती थी। कभी-कभी यूँ ही आप देर कर देते हैं और फिर सिर्फ मलाल रह जाता है। 2014 में जब मैंने साहित्य और सिनेमा के सम्बन्धों पर शोध कार्य शुरू किया था; उन्हीं दिनों या शुरूआती वर्षों में ही मैंने बासु दा से बात करने की कोशिश की होती तो ऐसा बहुत कुछ जानने समझने को मिल जाता, जिससे मैं चूक गयी। 

साहित्य और सिनेमा के बीच की सबसे मजबूत जीवंत कड़ी थे- बासु चटर्जी; ख़ास तौर पर हिंदी सीहित्य और सिनेमा के बीच की। मथुरा के माहौल में पले बढ़े एक बंगाली युवक की दुनिया हिंदी सिनेमा, हिंदी साहित्य और हिंदी रंगमंच से निरपेक्ष नहीं रह सकी थी। बल्कि उनमें इन सबके प्रति एक दीवानगी थी, और इसी दीवानगी ने उन्हें मुंबई पहुँचा दिया। बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने शुरूआती दिनों में उन्होंने रेणु की कहानी पर बनी क्लासिक फिल्म तीसरी कसममें निर्देशक बासु भट्टाचार्य को असिस्ट किया था और शायद उन्हीं दिनों वे सिनेमा निर्माण की बारीकियाँ भी बहुत अच्छी तरह से समझ रहे थे।
इसके ठीक बाद उनकी निर्देशन यात्रा शुरू हुई और उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस साहित्यिक कृति को चुना वो थी राजेन्द्र यादव का सारा आकाश’; जिसे पढ़कर वे बहुत प्रभावित हुए थे। 1969 में रिलीज़ हुई उनकी यह पहली ही फिल्म कुछ बेहतरीन हिंदी फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती है। इसके बाद वो लगातार फ़िल्में बनाते रहे। उनकी अधिकतर फ़िल्मों में निम्न मध्यम वर्गीय परिवार ही केंद्र में रहा। कम बजट की बेहद सरल, सहज और खूबसूरत फ़िल्में बनाने में उन्हें महारत हासिल थी। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच हैपर उन्होंने रजनीगंधाबनाई। जब-जब हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्मों का नाम आता है तो हर किसी की जुबान पर रजनीगंधाका नाम ज़रूर होता है। साहित्यिक कृति के सफल रूपांतरण के बतौर इस फिल्म को आज भी याद किया जाता है। इसके अलावा पिया का घर’, ‘छोटी सी बात’, 'कमला की मौत', ‘चितचोर’, ‘खट्टा मीठा’, ‘स्वामीऔर त्रिया चरित्रजैसी कई खूबसूरत फिल्मों का निर्देशन बासु दा ने किया।

उनकी फिल्मों का अपना एक अलग व्यक्तित्व है। यानी कि फिल्मों की भीड़ में आप बासु चटर्जी निर्देशित फिल्मों को उनकी विशेषताओं के चलते आसानी से पहचान सकते हैं। उनकी फिल्मों में दृश्य उसी तरह चलते हैं; जैसे जीवन चलता है, जैसे हम और आप जीते हैं। उनकी अमूमन फ़िल्में जीवन का फिल्मीकरण नहीं है। उनकी फिल्मों के गीत-संगीत का भी एक अलग व्यक्तित्व है; न बहुत ऊँचा, न बहुत धीमा बल्कि मद्धिम गति वाला। ऐसे शब्द, ऐसी ध्वनियाँ जी सीधे ह्रदय में उतर जाती हैं। शायद यही मद्धिमउनके जीवन दर्शन का हिस्सा था। वही जीवन जिसकी अपनी कठिनाईयाँ भी हैं, अपने सुख भी हैं और सबसे बड़ी बात कि अदम्य जिजीविषा है।
आज सुबह उनका निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। बासु दा का काम मात्रा और गुणवत्ता दोनों में इतना अधिक और इतने आगे का काम है कि वे हमेशा बहुत आदर के साथ याद किये जाते रहेंगे। अलविदा बासु दा!

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