अपने पीएचडी शोधकार्य के अंतिम चरण में जब मैं
उन साहित्यकारों से बात कर रही थी, जिनकी कृतियों पर हिन्दी में
फिल्में बनी हैं; तब उसी सिलसिले में मैंने मृदुला सिंहा जी
से भी संपर्क किया था। उन दिनों वे गोवा की राज्यपाल थीं लेकिन बिना किसी मध्यस्थ
के उनसे बात हुई और यह तय हुआ कि मैं उन्हें अपने सवाल ईमेल से भेजूंगी और वे
लिखित रूप में उनके जवाब मुझे भिजवा देंगी। मुझे लग रहा था कि चूँकि वे एक बड़े पद
पर हैं और काफी बुज़ुर्ग भी हैं तो शायद हो सकता है कि ये बात आई-गई हो जाए;
लेकिन सिर्फ एक-आध बार मुझे रिमांइडर भेजना पड़ा और उसका जवाब भी यह
आया कि वे जवाब तैयार कर रही हैं और फिर एक दिन ईमेल से उनके जवाब आ गए।
मुझसे बातचीत में
मृदुला जी ने इस बात पर बेहद खुशी ज़ाहिर की थी कि उनकी कृति और उसपर बनी फिल्म पर
विशेषरूप से कोई बात करना चाह रहा है। उन्होंने बातचीत में यह भी कहा था कि वे
राज्यपाल बाद में हैं; साहित्यकार पहले हैं। आमने-सामने बातचीत की योजना
हो तो उन्होंने गोवा आने का आमंत्रण भी मुझे दिया था। मतलब यह कि यह पूरा प्रसंग
एक सकारात्मक अनुभव की तरह मेरे ज़हन में दर्ज है।
मृदुला जी के साहित्य
को बहुत पढ़ने का मौका मुझे नहीं मिल सका; लेकिन वृद्ध जीवन पर केंद्रित
उनकी कहानी 'दत्तक पिता' और उसपर बनी
फिल्म 'दत्तक' दोनों ही बेहतरीन काम
हैं। गुलबहार सिंह के निर्देशन में 2001 में
बनी यह फिल्म मूल कृति के बेहद सफल और उम्दा सिनेमाई रूपांतरण का उदाहरण
है। मौका मिले तो यह फिल्म एक बार ज़रूर देखनी चाहिए।
आज खबर आई कि मृदुला सिंहा नहीं रहीं। मुझे अफसोस रहेगा कि उन्होंने जो विचार मुझसे साझा किए वे उनके रहते एक किताब के अंश के रूप में प्रकाशित नहीं हो पाए। बहुत कुछ की तरह किताब के प्रकाशन पर भी हम जैसों का कोई अख्तियार नहीं है! मृदुला सिंहा जी को भावभीनी श्रद्धांजलि।
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